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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०२ विकृतिविज्ञान सर्वेऽपि रोगनाशाय न त्वेवं शीघ्रकारिणः । हिमाश्वासौ यथा तौ हि मृत्युकाले कृतालयौ ॥ शीघ्रकारी होने के कारण श्वास मृत्यु का कारण बन सकता है अतः कफज्वरीय श्वास की ओर अत्यन्त सतर्कतापूर्वक विचार करते हुए तुरत उचित प्रतीकार की व्यवस्था होनी परमावश्यक है। श्वास का जो उपद्रव कफज्वर के साथ-साथ देखा जाता है वह अन्य उपद्रवों की उपस्थिति में ठीक वैसा ही मिलता है जैसा साधारणतया हम रक्त में उपसिप्रिय कणों की वृद्धि होने के समय ( eosinophilia ) देखते हैं। यह श्वास तमक श्वास से हल्की और क्षुद्र श्वास से कुछ अधिक होती है। वैसे वाताधिको भवेत् क्षुद्रस्तमकस्तु कफोद्भवः के अनुसार कफजज्वर में तमक श्वास पाई जा सकती है । कफ के कारण ही तमक श्वासोत्पत्ति मानी गई है प्रतिलोमं यदा वायुः स्रोतांसि प्रतिपद्यते । ग्रीवां शिरश्च संगृह्य श्लेष्माणं समुदीर्य च ।। करोति पीनसं तेन रुद्धो घुघुरकं तथा । अतीव तीव्रवेगं च श्वासं प्राणप्रपीडकम् ॥ आदि । शैत्य तथा श्वैत्य ये दो लक्षण कफ के कारण होते हैं और उन सभी स्थलों पर मिलते हैं जहाँ कफ की व्याप्ति अत्यधिक रहती है। कफ के प्राकृत लक्षणों में शीतत्व और श्वेतत्व दोनों ही कहे गये हैं श्वेतत्वशीतत्वगुरुत्वकण्डू स्नेहोपदेहस्तिमितत्वलेपान् । ' उत्सेधसंक्लेदचिरक्रियाञ्च कफस्य कर्माणि वदन्ति तज्ज्ञाः ।। ( योगरत्नाकर ) - जो बीस श्लेष्मविकार शास्त्रकारों ने गिनाए हैं इनमें चरक और कश्यप दोनों ही इनकी उपस्थिति स्वीकार करते हैं (१) श्वेतावभासताङ्गानां तथा मूत्रपुरीषयोः ॥ ( कश्यप) (२) श्वेतावलोकनं श्वेतविटकत्वं श्वेतमूत्रता । श्वेताङ्गवर्णता शैत्यम्"। (माधवनिदान) (३) शीताग्निताश्च, उदर्दश्च, श्वेतावभासता च, श्वेतमूत्रनेत्रवर्चत्वञ्चेतिविंशतिः श्लेष्मविकाराः। (चरक) अतः यह सिद्ध हो गया कि शैत्य और श्वैत्य ये दोनों ही लक्षण कफज हैं और कफजज्वर में इनका आचार्यों द्वारा उल्लेख पूर्णतः वैज्ञानिक तथा तथ्यावलम्बित है। चरक ने नखश्वैत्य, नयनश्वैत्य, वदनश्वैत्य, मूत्रश्वैत्य, पुरीषश्वैत्य और त्वचाश्चैत्य ये छ लक्षण दिये हैं। सुश्रुत ने अक्षणोश्च शुक्लता मात्र लिखकर छोड़ दिया है। डल्हणोक्त कफज्वर के लक्षणों में शुक्लमूत्रपुरीषत्वम् और अक्षणोश्च शुक्लता आये हैं । वाग्भट ने श्वैत्यं त्वगादिषु लिखकर छोड़ दिया है। स्वगादि में नखनयनवदनमूत्रपुरीषत्वचा सभी का समावेश होता है। हारीत ने नेत्रे च पाण्डुच्छवी उग्रादित्य ने धवलाक्षिमलाननत्वम्, वसवराज ने गौरवर्णः अञ्जननिदान में शौक्ल्यम् और वैद्यविनोदकार ने मूत्रनखादिशौक्ल्यम् ऐसा लक्षण दिया है। ___ यह शुक्लता आती कहाँ से है। इस प्रश्न को सरल साधारणरूप से यों सिद्ध किया जाता है कि रक्त में उपसिप्रियकण बढ़ते हैं, पित्त के स्वरूप लाल कणों की कमी होती है, यकृत् की क्रियाशक्ति में उत्तर आजाने के कारण रोगी की स्वस्थावस्था की For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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