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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०१ ज्वर प्रलिप्यमानेन मुखेन सीदन् शिरोरुजार्तः कफपूर्ण देहः । अभक्तरुग्गौरवकण्डुयुक्तः कासेद्भृशं सान्द्रकफः कफेन ॥ वैद्यविनोदकार को छोड़ कर शेष सभी आचार्यों ने कास का वर्णन किया है । इसका कास अनिवार्यतः रहने वाला लक्षण है । शीतकाल या गर्मी आती है ऐसे समय जो बहुधा गाढ़े कफ से युक्त और साथ में मन्द मन्द ज्वर बना रहता है वह सब अर्थ यह हुआ कि कफज्वर में वसन्त ऋतु में या जब सर्दी खाँसी होती हुई देखी जाती है कफज्वर के ही कारण होता है । से प्रतिश्यायो नासास्रावः प्रतिश्याय का अर्थ नासिका के द्वारा सिङ्घाणक का अधिक मात्रा में निकलना होता है । सुश्रुत ने प्रतिश्याय का कारण सिर में मारुतादि दोषों के सञ्चय को बतलाया है । प्रतिश्याय के आरम्भ में छींक आना, सिर का भरा हुआ या भारी होना, स्तम्भ, अङ्गमर्द और रोमहर्षादि लक्षण होते हैं । कफज्वर में कफज प्रतिश्याय हुआ करता है और घ्राणात् कफः कफकृते शीतः पाण्डुः स्रवेद्वहुः के अनुसार नाक से ठण्डा, पाण्डुर और अधिक मात्रा में कफ निकलता रहता है । प्रतिश्याय या पीनस कफज्वर के अतिरिक्त निम्न लिखित व्याधियों में और भी देखा जाता है— १. वातश्लैष्मिक ज्वर, २. कफज कास, ३. क्षयजकास, ४. तमक और प्रतमक श्वास, ५. राजयक्ष्मा, ६. कफजयचमा, ७. कफज अर्श, ८. उदावर्त, ९. नासार्श, १०. कफजग्रहणी, ११. कफजगुल्म, १२. कफजकृमिरोग, १३. प्राणवायुकोष, १४. उदान वायुकोप । प्रतिश्याय और कास ये दोनों एक के बाद दूसरा होता है । चरकोक्त निम्न विचार जिसे हम पहले भी व्यक्त कर चुके हैं पुनः इसलिए देते हैं कि इन दोनों के द्वारा होने वाले भयङ्कर परिणामों की ओर कोई भी विकृतिविशारद उपेक्षा की दृष्टि से न देखे - दिवास्वापादिदोषैश्च प्रतिश्यायश्च जायते । प्रतिश्यायादथो कासः कासात् संजायते क्षयः ॥ क्षय रोगस्य हेतुत्वे शोषस्याप्युपजायते । For Private and Personal Use Only दिवास्वप्नादि कफकोपक कारणों से पहले कफज्वर बनता है जिसके साथ प्रतिश्याय रहता है | यदि यह ज्वर और पीनस कुछ काल तक और रुक जावे तो कास बन जाती है | कास के साथ ज्वर का अनुबन्ध बराबर रहता है । यदि सज्वर कास की ओर. . उपेक्षा बरती गई तो यक्ष्मा या धातुक्षय हो जाता है उसके आगे धातुशोष या शोष बन जाता है । कफज्वर, प्रतिश्याय, कास, क्षय, शोष यह एक ऐसी श्रृंखला है कि यदि जुड़ गई तो प्राण लेकर ही टूटती है । उग्रादित्य के मत में पीनस बहुत अधिक कफज्वर में पाई जाती है । श्वास से श्वसनक्रियाभिर्वृद्धिः लेना सर्वथा उचित है | कासवृद्धया भवेच्छवासः भी कोपरान्त वासोत्पत्ति की उपपत्ति को सार्थक करता है । हम तो श्वास के इस लक्षण के साथ इसे श्वसनक की संज्ञा देते हैं । श्वसनक अर्थात् न्यूमोनियाँ जितने मारक होता है उतने ही मारक श्वास और हिक्का रोग हैं-
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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