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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६४ विकृतिविज्ञान श्लेष्मोल्बण अर्श में हृल्लासप्रसेककासश्वासपीनसारुचिच्छर्दिः । वातज्वर में प्रसेकारोचकाश्रद्धाविपाकास्वेदजागराः ॥ हम स्पष्टतया अपनी वस्तु की यथार्थता पाते भी हैं। मुख की मधुरता क्यों होती है ? इसको समझने से पूर्व यदि हम थोड़ा मधुर रस के लक्षणों और गुणों की ओर दृष्टिपात कर लें तो बहुत लाभप्रद होगा। (१) तत्र यः परितोषमुत्पादयति प्रह्लादयति तर्पयति जीवयति मुखोपलेपं जनयति श्लेष्माणं चाभिवर्द्धयति स मधुरः। (२) तत्र मधुरो रसो रसरक्तमांसमेदोऽस्थिमज्जौजशुक्रस्तन्यवर्धनश्चक्षुष्यःकेश्यो वो बलकृत्सन्धानः शोणितरसप्रसादनो बालवृद्धक्षतक्षीणहितः..."तृष्णामूर्छादाहप्रशमनः ....'कृमिकफकरश्चेति । (३) स एवं गुणोऽप्येक एवात्यर्थमासेव्यमानः कासश्वासालसकवमथुवदनमाधुर्यस्वरोपघातकृमिगलगण्डानापादयति। उपरोक्त तीनों उद्धरणों से यह विदित होता है कि, (१) मधुर रस कफ का अभि वर्द्धन करता है कि वह कफकारक है तथा (२) वह मुख में मधुरता उत्पन्न करता है । साथ ही श्लेष्मा के प्रकुपित होने के लिए स्निग्ध गुरु-मधुरपिच्छिल शीताम्ल लवण पदार्थों का सेवन करना परमावश्यक है। मधुर पदार्थ का सेवन कफ की वृद्धि करता है तो कफ की वृद्धि या कोप के कारणों की मूल में हेतुओं की मधुरता भी सम्मिलित हो जाती है। इस दृष्टि से माधुर्य और श्लेष्मा अन्योन्याश्रित से ही दिख पड़ते हैं। अतः कफवृद्धि के कारण मुख में लाला स्राव का अधिक होना स्वाभाविक है । लालारस स्वयं मधुर गुण भूयिष्ठ होता है अतः मुखमाधुर्य की उपस्थिति रहना कोई कठिन नहीं। अतः ज्वर चढ़ा रहता है, भूख लगती नहीं अतः यह मुखमाधुर्य किसी उत्साह और उल्लास का प्रदाता न बनकर एक प्रकार की ग्लानि का ही जनक होता है और मधुर मुख होते हुए भी रोगी को हृल्लास वा वमन आता रहता है। कफज ज्वर के अतिरिक्त अष्टाङ्गसंग्रहकार ने विषमज्वर, कफज छर्दि तथा कफज तृष्णा में भी मुख की मधुरता को स्वीकार किया है। आचार्य यादवजी ने माधवनिदान में मधुरास्थता के स्थान पर लवणास्यता पाठ भी दिया है। मुख का नमकीन होना कहाँ तक सम्भव है यह पता नहीं पर हो सकता है। उसके कारण प्रसेक और अधिक हो सकता है । इसका विशेष वर्णन हृल्लास के साथ मिलेगा। हल्लास तथा छर्दि ये दो लक्षण श्लेष्मा के प्रकोप के कारण उत्पन्न ज्वर में देखे जा सकते हैं । कफ के रोगों को दूर करने के लिए आचार्यों ने वमन एक महत्वपूर्ण उपाय बतलाया है । अष्टाङ्गहृदयकार ने लिखा है___श्लेष्मज्वरप्रतिश्यायगुल्मान्तर्विद्रधीषु च । प्रच्छर्दयेद्विशेषेण यावत्पित्तस्य दर्शनम् ॥ कफज्वर, प्रतिश्याय, गुल्म और अन्तर्विद्रधि नामक रोगों में विशेष रूप से वमन करावें और तब तक वमन कराते रहें जब तक कि वमन में पित्त के दर्शन न होने लगें। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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