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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६३ है और बिना खाये चलता रहता है। इसी अनन्नाभिलाषा और तृप्ति के कारण कफज्वरी को भूख आने में सबसे अधिक देर लगा करती है। यदि वातज्वरी सात दिन में भूख पर आता है तो पित्तज्वरी ९ दिन में तथा कफज्वरी ग्यारवें दिन तुधातुर होता है। श्लेष्मा का कार्य स्वयं सन्धि से श्लेषण करना, स्नेहन करना, रोपण करना, पूरण करना तथा बलवर्द्धन करना है। कफ की वृद्धि होने पर शैथिल्य, शैत्य, स्थैर्य, गौरव, अवसाद, तन्द्रा और सन्ध्यस्थिविश्लेष की जो कथा आचार्यों ने गाई है उसमें तन्द्रा और निद्रा भूखे पेट उतनी नहीं आती जितनी भरपेट भोजन कर तृप्त हुए व्यक्ति को आती है। ____ श्लेष्मा की वृद्धि स्वयं अग्निसादजनक' होती है और प्रसेककारिणी होती है। ज्वर के कारण भी अग्निमान्द्य बना करता है अतः आमाशय में अग्नि की कमी रहती है साथ ही प्रसेक के कारण क्लेदक कफ आमाशय में पर्याप्त मात्रा में पहुँच जाता है इसके कारण अग्निमान्द्य इतना अधिक हो जाता है कि आहारपाचनासामर्थ्य हो जाती है जब चूल्हा चढ़ाना ही नहीं है तो फिर दाल आटे की माँग करने की कौन आवश्यकता ? अतः अनन्नाभिलाष कफप्रकोपजन्य ज्वर की प्राकृतिक परिणति है। सुश्रुत, डल्हण, उग्रादित्य और अंजननिदानकार जहाँ इसे अरुचि कह कर सन्तोष कर लेते हैं वहाँ वाग्भट इसे विशेषादरुचिः कह कर विशेष रूप से अरुचि होती है इस ओर हमारा ध्यानकर्षण करता है । श्रीमान् अरुणदत्त ने अपनी टीका में हमारे विचार को स्पष्ट ही किया है-सर्वज्वरेऽरुचिर्भवत्येव, अतिशयेन तु कफजे । हेमाद्रि ने विशेषादरुचि को अत्यरुचिः कह कर कार्य पूर्ण किया है। मेदोगत ज्वर, सामज्वर, कफज्वर, संगजज्वर, आमज विकार, यकृत् के विकार और ग्रहणी दोष में अरुचि की प्रबलता देखी जाती है। हारीत ने रुचिर्विरमता कह कर अपना भाव व्यक्त किया है। प्रसेक और मुखमाधुर्य दोनों का एक दूसरे से चचा भतीजे का सम्बन्ध है। मुखमाधुर्य, मधुरास्यता, मधुरानन, मधुरत्वमास्ये या वाङमाधुर्य के कारण प्रसेकोत्पत्ति होती है। वसवराज ने वारिपूरं सलालम् शब्द के द्वारा प्रसेक की ही अभिव्यक्ति की है। मुखमाधुर्य से प्रसेक बढ़ता है और प्रसेक से मुख की मधुरता की बढ़ोतरी होती है। प्रसेको लालस्रावः यह हेमाद्रि कहता है। मुख में लार का बहुत बनना प्रसेक कहलाता है लार बिना मुख की मधुरता के बनती नहीं। यहाँ हमें एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मुख मधुररस से व्याप्त और लाला का पर्याप्त उद्रेक होने पर भी कफज्वरी को अत्यधिक अरुचि रहती है। जिसका अर्थ यह हुआ कि लाला रस क्लेदक और अन्नपाचक हो सकता है अग्निसंधुक्षक नहीं। इसी कारण जहाँ जहाँ प्रसेकोपस्थिति गाई गई है वहीं वहीं अग्निसदन भी उपस्थित किया गया है। उदाहरण के लिए कफज राजयक्ष्मा में प्रसेक होता है और अरुचि भी कफादरोचकच्छर्दिः कासोमूर्धाङ्गगौरवम् । प्रसेकः पीनसः श्वासः स्वरसादोऽल्पवह्निता ॥ १. श्लेष्माऽमिसदनप्रसेकालस्य गौरवम् । श्वैत्य शैत्यश्लथाङ्गत्वं श्वासकासातिनिद्रता ॥ (वाग्भट) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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