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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८८ विकृतिविज्ञान स्वेदवाही असंख्य स्रोतों में पहुँच कर उन्हें आवृत करके अग्नि को पक्तिस्थान से हटाकर या मन्द करके जाठराग्नि की उष्णता को त्वचागत करके सम्पूर्ण शरीर में ज्वररूप में व्याप्त कर देता है । कफज्वर की उत्पत्ति की यह कहानी है । दोषपूर्ण आहारविहारादि के कारण शरीर की सन्तुलित समदोषावस्था में विघटन हो कर कफ धातु का प्रकोप हो जाता है । वही प्रक्षुब्ध कफ आमाशयस्थ ऊष्मा की स्वाभाविक अन्नपाकिनी क्रिया को शान्त कर देता है और उस अग्नि के साथ वह प्रवेश करता है शरीर के उन स्रोतों में जो आहारोत्पन्न प्रथम पदार्थ अन्नरस को शरीर की आवश्यकता पूर्ति निमित्त ढोते रहते हैं । अनि आहारपाचन का कार्य रोक देती है और प्रकुपित कफ के द्वारा . शरीर के रोम रोम में व्याप्त होकर प्राणी में सज्वरावस्था पैदा कर देती है । आयुर्वेद ने ज्वरोत्पत्ति की एक ही कहानी लिखी है । विषम से विषम परिस्थितियाँ वात, पित्त या श्लेष्मा को ही प्रकुपित करने में समर्थ होती हैं । ये दोष कालान्तर में अपने-अपने सञ्चय कालों के अनुसार आमाशय में आते हैं आकर पाचन क्रिया को शान्त कर अग्नि को साथ ले यानी अग्नि से स्वयं दग्ध होकर शरीर के रसपरिभ्रमण और स्वेद परिभ्रमणकारी मार्गों में घुस कर शरीर के रोम-रोम को दग्ध करके या सन्तप्त करते हुए बैठ जाते हैं । इसी को लोक ज्वर कहता है । यह कार्य तब तक निरन्तर चलता रहता है जब तक दोष अपनी समावस्था को प्राप्त नहीं हो जाता । दोषी बुखार या मियादी बुखार में मियाद से ज्वर उतरता है । इसका भाव यही है कि उतनी मियाद एक दोष को शरीरानुकूल परिस्थिति में लाने में समर्थ होती है । कभीकभी उग्रौषधियों के प्रयोग से शरीर की सन्तप्तावस्था को एकदम रोक दिया जाता है। और रोगी का शरीर ठण्डा पड़ जाता है पर ज्वर के आदिकारण प्रकुपित दोष की समावस्था नहीं आई रहती अतः बड़े-बड़े गम्भीर परिणाम भी देखे जाते हैं । आमाशयस्थ ऊष्मा को शान्त करते ही ज्वर उतर जायगा पर यह ऊष्मा और प्रकुपित दोष ये दो पृथक् वस्तु हैं ऊष्मा की शान्ति ज्वर के कारण को नष्ट करने में समर्थ नहीं होती और जब शरीर में एक प्रकुपित दोष बना ही हुआ है तो रोगी को आराम कहाँ ! इसी कारण कभी-कभी जो ज्वर मियाद से पूर्व पच जाते हैं उनमें शरीर ठण्डा हो जाने पर भी तथा २-२, ४–४ दिन व्यतीत हो जाने पर भी रोगी को भूख नहीं लगती, उत्साह नहीं आता, मोद प्राप्त नहीं होता निष्प्रभ सा थका सा मरता सा वह पड़ा रहता है । इसका कारण यही है कि कारणभूत दोष अपनी समावस्था को नहीं पहुँच कि यह रोग की जड़ की सका । इसीलिए आयुर्वेद को जब समाज यह कहता है चिकित्सा करता और रोग को जड़ मूल से उखाड़ फेंकता है तो उसमें निस्सन्देह एक यथार्थता, मौलिकता और दृढता छिपी हुई है जो ठोस वैज्ञानिक विचारणा पर अव- लम्बित है । लक्षणपरिवर्जन आयुर्वेदीय बुद्धि से लक्ष्य नहीं है निदानपरिवर्जन लक्ष्य है; हेतुपरिवर्जन रोग की जड़ पर कुठाराघात करता है । लक्षणपरिवर्जन रोगी को आकस्मिक शान्ति मात्र देने का उपाय है जिसके गम्भीर परिणामों की ओर आधुनिकों का भी ध्यान जा रहा है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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