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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६० विकृतिविज्ञान प्राजनेनेव वक्षसा - वक्ष या उरस् में प्रतोदन होता है । चरक उसे अनुन्नत्व या बन्धभूत मानता है । प्राजन का अर्थ प्रतोद होता है । वातज्वर में छाती बँधी सी कड़ी सी या कष्ट में पाई जाती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निष्पीड्यत इवोदरम् - जैस तिल कूटे जाते हैं ऐसे उदर में निष्पीडनवत् वेदना होती है । अशक्तिर्भक्षणे हन्वोः - जबड़ों द्वारा चबाने में असामर्थ्य हो जाती है । इसी को हन्वोश्वाप्रसिद्धि चरक ने कहा है जिसे हन्वो स्वव्यापाराकरणम् चक्रपाणिदत्त ने तथा अचालनत्वमिव गंगाधर ने कहा है I बन्धकुक्षयोः - कुक्षियों का बँधना या उनमें जकड़न उत्पन्न होना यह हारीत ने एक विशेष लक्षण परखा और पाया है अतः उसका उल्लेख किया है I गारुक् से लेकर कुक्षिबन्धन तक ये जितने भी लक्षण या वेदनाएँ वर्णित हैं वे यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो सम्पूर्ण शरीर में स्थित मांसपेशी संस्थान के ही विकार पाये जाते हैं । वातनाडियों का मांसपेशियों के साथ अटूट सम्बन्ध है । वात का प्रकोप होने का स्पष्ट अर्थ शरीरस्थ मांसपेशियों का उनमें प्रत्यक्ष और सक्रियभाग लेना ही हो सकता है | श्रम शब्द का स्थान-स्थान पर उल्लेख इन पेशियों की थकान को ही प्रकट करता है । जब ये पेशी थकती हैं तो किसी में बंधनवत् पीड़ा का आभास कराती हैं, कहीं मंथनवत् दर्द कराती हैं, कहीं चालन उत्पाटनावपीडनवत् विविध व्यथाओं को प्रदर्शित करती हैं। मूलसिद्धान्त यह है कि इस रोग में शरीरस्थ पेशीसंस्थानान्तर्गत स्थित वात में प्रकोप हुआ है । श्वास, हृदयग्रह, जृम्भण आदि जहाँ अनैच्छिक पेशियों की व्यथाओं की ओर इङ्गित करती हैं वहाँ श्रम, बाह्वोर्भेदः, अंसयोः पीडनम् आदि ऐच्छिक पेशियों की तबियत खराब हो जाने की बात पुकार -पुकार कर बतलाती हैं । वेपथु या शरीरकम्प पेशी की ही एक व्यथा है जो वातनाडियों के नियन्त्रण की कमी से अथवा आयुर्वेदीय शब्दों में वातप्रकोप के कारण उत्पन्न होती है । अब हम वातज्वरसम्बन्धी अन्य महत्त्वपूर्ण लक्षणों को लेते हैं जिनमें ज्वर के आगमन और अभिवृद्धि के काल की घोषणा मुख्य है । जरणान्त, दिवसान्त, निशान्त तथा घर्मान्त ये चार काल वातज्वर के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण कहे गये हैं । जरणान्त या अन्न के जीर्ण होने के समय 'जीर्णेऽन्ने वर्धते वायुः' आदि की दृष्टि से अन्न के लेने के तुरत पश्चात् श्लेष्मा, मध्यकाल या अन्न की पच्यमानावस्था पित्त और अन्न की जीर्णावस्था में वायु का प्रकोप होता है । अतः वातज्वर से पीडित होने वाला रोगी प्रायः यह कहता है कि भोजन करने के तीन चार घण्टे बाद उसे ज्वर आना आरम्भ हुआ । निदान की दृष्टि से ज्वरोत्पत्ति तथा भोजनग्रहण करने के काल में कितना अन्तर है इसे जान लेना परमावश्यक है । कभी-कभी रोगी को ज्वर तो बना रहता है और वह भोजनग्रहणकाल या पच्यमानावस्था में बढ़ता भी नहीं है पर भोजन का पाक होने पर जब अपान वायु शुद्ध होती है तथा पुनः भूख की कुछ इच्छा होने लगती है उसी काल में ज्वर का पुनरागमन या ज्वर की अभिवृद्धि होने लग जाती है । दिवसान्त अर्थात् For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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