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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ज्वर ३५६ सकता है उनमें गौरव का अनुभव हो सकता है और कभी-कभी उनमें इतना शूल भी हो सकता है कि रोगी उन्हें कपड़े से बांधे रहता है । सुप्तता या स्तब्धता के द्वारा वातिक लक्षण का सुखावबोध हो जाता है । • पिण्डिकोद्वेष्टनम् या पिण्डिकयोरुद्वेष्टनम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसे जान्वधोमांसपिण्डयोरुद्वेष्टनम् माना जाता है। पैरों की पिण्डलियों में हड़कन की अधिकता बहुधा पाई जाती है । रोगी इस हड़कन से इतना व्यथित हो जाता है कि वह कपड़े या रस्सी से पिण्डलियों को जब तक कस नहीं लेता तब तक उसे आरामानुभव ही नहीं हो पाता । पिण्डलियों धड़कन के साथ-साथ श्रम ( थकान ) भी हो जाती है ऐसा लगता है कि रोगी ने मानो कितना कार्य नहीं किया । पिण्डिका की व्याख्या चक्रपाणिदत्त ने जान्वधोजङ्घा मध्यमांसपिण्डिका को ही पिण्डिका कहा है जिसे लोक मानता है । विश्लेष इव सन्धीनाम् - सन्धियों में साधारणतया और जानुसन्धि में विशेषतया एक ऐसी पीड़ा होती है जिससे रोगी को ऐसा आभास होने लगता है कि उसका जोड़ खुल गया या अपनी जगह से टल गया या ढीला हो गया। इसी को विश्लेषण कहा है। अरुणदत्त ने इसे विच्छेदन माना है । ऊर्ध्वोः सादः - ऊर्ध्वोः सादोऽवसन्नता । ऊरुओं में साद या अवसाद हो जाता है | अरुणदत्त ने साद का अर्थ स्वक्रियायामसमर्थत्वम् अर्थात् अपनी कार्यशक्ति में • असमर्थता किया है । वातज्वर से पीडित व्यक्ति की ऊरु ( जांघें ) अवसन्न हो जाती हैं । वहाँ स्थित बड़ी-बड़ी मांस पेशियाँ अपना-अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाती हैं। जिसके कारण टांगें इधर उधर हिलाने में कष्ट होता है और कभी कभी चलना तो एक मरुक जाता है । A कटीग्रह: या कटीभन एक सर्वसाधारण घटना है । वातज्वरी की कमर में जकड़न या टूटने का सा दर्द हुआ करता है । ज्वरकाल में भी वह देखा जाता है और ज्वर के शान्त होने पर भी वह होता है । पार्श्वरुग्ण या रुजा च पार्श्वे या छिद्यन्त इव अस्थीनि पार्श्वगानि विशेषतः ये सभी शब्दसमूह पसलियों की पीड़ा की ओर संकेत करते हैं । पसलियों में या पसलियों की हड्डियों में छेदने की सी पीड़ा का होना एक ऐसी घटना है जिसे चरक और उसके अनुयायी वृद्धवाग्भट ने तथा वसवराजीयकारने माना है पर अन्य ने उसका अधिक महत्त्व नहीं दिया । 1 पृष्ठ क्षोत्रमिवाप्नोति - पीठ में संतुष्णता या मर्दनवत् पीडा होती है । उग्रादित्य ने पृष्ठ में अत्यधिक वेदना को माना है। 1 स्कन्धयोर्मथनम्—स्कन्धों में मथने की सी पीड़ा होती है । पीडनमंसयो: - अंसफलकों में ऐसी पीडा होती है जैसे कि तैलादि में लकड़ी को पटकना । इसे चरक ने अवपीडन माना है । बाह्वोर्भेद:- बाहुओं में विदारण करने जैसे या उत्पाटनवत् पीड़ा होती है । ऐसा लगता है कि बाँहों को कोई उनके जोड़ों में से उखाड़ता हो । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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