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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ विकृतिविज्ञान कुविचार मिथ्याहारजनक मानागया है। उपयोग संस्था आहारविधि विशेषायतन के अन्तर्गत आती है। इसका अभिप्राय है आहार द्रव्य के उपयोग का नियमन । जीर्ण होने के पूर्व आहार का प्रयोग रसोद्वेग कारक अर्थात् रोगोत्पादक होता है। उपभोक्ता का भी इस दृष्टि से उतना ही महत्त्व है जितना कि उपयोग संस्था का । उपभोक्ता की प्रकृति के अनुकूल पदार्थ न मिलने से या अपनी प्रकृति के विरुद्ध आहार करने का अर्थ ही मिथ्याहार में आता है। हमारे मित्र श्री सुन्दरलाल त्रिवेदी रात्रि में तक्रपान नहीं कर सकते क्योंकि यह उनकी प्रकृति के विरुद्ध है। अतः उपभोक्ता पर भी आहार के मिथ्यात्व का विचार आता है। जिस प्रकार मिथ्याहार उसी प्रकार मिथ्याविहार भी ज्वरोत्पत्ति में पूर्णतः सहायक है। मिथ्याविहार की परिभाषा बतलाते हुए लिखा गया है अशक्तः कुरुते कर्म शक्तिमान्न करोति यः। मिथ्याविहार इत्युक्तः सदा तं परिवर्जयेत् ॥ जिसमें कार्य करने की सामर्थ्य नहीं है वह जब अपनी सामर्थ्य से अधिक कार्य करता है अथवा जो सामर्थ्यवान् है वह तदनुकूल कार्य से जी चुराता है तो ये दोनों मिथ्याविहार करते हैं और उसे रोकना चाहिए । मिथ्याविहार के कारण उत्पन्न होने वाला आश्विन कार्तिक कालीन शीतपूर्वक ज्वर है। रबी की फसल के लिए एक एक किसान जब रात्रि भर अपने बैलों को लिए खेत जोतता रहता है तो वह निस्सन्देह अपनी शक्ति बहुत अधिक व्यय करने लगता है। इस मिथ्याविहार के परिणामस्वरूप उसे ज्वर आता है। कोई ही व्यक्ति इस ज्वर से बच पाता है। इसी मिथ्याविहार में ऋतुपरिवर्तन भी आता है। ग्रीष्म से शरत्काल यह जो परिवर्तन है यह भी स्वयं मिथ्याविहारोत्पादक है इसके कारण भी बहुधा रोग देखा जाता है। मिथ्याहार और मिथ्याविहार इन दोनों के कारण दोषों का प्रकोप होता है। इस दोष-प्रकोप के सम्बन्ध में विविध कारणों से जो वर्णन तीसटाचार्य ने किया है वह परम रोचक है और पर्याप्त होने से उसको यहाँ उद्धृत करते हैं:व्यायामादपतर्पणाद प्रपतनाद्भङ्गात् क्षयाज्जागरात् , वेगानां च विधारणादतिशुचः शैत्यादतित्रासतः । रूक्षक्षोभकषायतिक्तकटुकैरेभिः प्रकोपं व्रजेत् , वायुरिधरागमे परिणते चान्नेऽपराह्नेऽपि च ॥ कटवम्लोष्णविदाहितीक्ष्णलवणक्रोधोपवासातपस्त्रीसम्पर्कतिलातसीदधिसुराशुक्तारनालादिभिः । मुक्ते जीर्यति भोजने च शरदि ग्रीष्मे सति प्राणिनां मध्याह्ने च तथाऽर्धरात्रिसमये पित्तं प्रकोपं व्रजेत्॥ गुरुमधुररसातिस्निग्धदुग्धेशुभक्ष्यंद्रवदधिदिननिद्रापूपसर्पिष्प्रपूरैः तुहिनपतनकाले श्लेष्मणः सप्रकोपः प्रभवति दिवसादौ भुक्तमात्रे वसन्ते। दोषों से तात्पर्य वात, पित्त और श्लेष्मा से ही है। इन तीनों की स्पष्ट कल्पना और तत्सम्बन्धी मतों पर पर्याप्त ऊहापोह विविध आयुर्वेदीय ग्रन्थों में है। ये तीनों दोष मानव शरीर की एक एक इकाई-शरीरकोशा-में उपस्थित रहते हैं। किस मात्रा में रहते हैं यह उस अङ्ग विशेष की विशिष्टता से सम्बद्ध विषय है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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