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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर ३०३ पति ने अपने यहाँ यज्ञ रचा था और शङ्कर भगवान् को आमन्त्रित नहीं किया था तो भी सती जी वहाँ पहुँची थीं और वहाँ पति को आमन्त्रित न करने के अपमान से दुःखी होकर जब स्वाग्नि से ही अपने शरीर को परिदग्ध कर रही थीं तब ही भगवान् शङ्कर के गणों ने दक्ष के यज्ञ को विध्वस्त कर दिया था । शङ्कर के क्रोध करने से उनकी श्वास से वीरभद्र ज्वर उत्पन्न हुआ। इस कथानक का क्या अभिप्राय रहा इसे काल के अनन्त प्रवाह ने आत्मसात् कर लिया है और जैसे ताले लगे घर की वर्षों से ताली खो जाती है उसी प्रकार पुराण रूपी तालों की खोई हुई तालिका के कारण हम ज्ञान भण्डार का ठीक ठीक उपयोग करने में पूर्णतः असमर्थ हो गये हैं । यदि किसी प्रकार कोई ताली मिल सकी तो ये ताले खुलेंगे और उनके प्रकोष्ठों में सचित द्रव्यराशि से जगत् का अत्यधिक कल्याण हो सकेगा । इस समय तो उसकी कोई आशा इसलिए नहीं दिखती कि अधिकतर व्यक्ति उन तत्त्वदर्शियों के द्वारा उपस्थित रूपकों को मखौल मान कर चलता है और उनमें घुसने की अपेक्षा उनसे बचकर मार्ग निकाल लेता है । ज्वर की सम्प्राप्ति के सम्बन्ध में माधवनिदानोक्त निम्न सूत्र बहुत प्रसिद्ध है । मिथ्याहारविहाराभ्यां दोषा ह्यामाशयाश्रयाः । बहिर्निरस्य कोष्ठाग्निं ज्वरदाः स्यू रसानुगाः ॥ इसका अभिप्राय यह है कि मिथ्याहार और मिथ्याविहार के द्वारा आमाशयाश्रित वातपित्तादि दोष आमाशय में उत्पन्न रस का अनुगमन करके कोष्ठाग्नि को बाहर फेंक देते हैं और ज्वर हो जाता है । ज्वरोत्पत्ति में इस प्रकार मिथ्या आहार और मिथ्या विहार मुख्य जड़ हैं यदि मिथ्या आहार न किया जावे अथवा मिथ्या विहार न बरता जावे तो ज्वरोत्पत्ति नहीं हो सकती । मिथ्याहार की कल्पना के लिए निम्न सूत्र प्रसिद्ध है— अकाले चातिमात्रं च सात्म्यं यच्च भोजनम् । विपमं चापि यद्भुक्तं मिथ्याहारः स उच्यते ॥ अकाल में, अत्यधिक मात्रा में, असात्म्य या विषम भोजन करना मिथ्याहार कह लाता है । चरक विमान स्थान में जो आहार विधि विशेषायतन कहे गये हैं उनके विरुद्ध उपयोग मिथ्याहार कहलाता है । द्रव्यों के गुरुत्व लघुत्वादि गुण प्रकृति के अन्तर्गत आते हैं उड़द की प्रकृति गुरु और मुद्र की प्रकृति लघु है | गुरु उड़द का प्रयोग मिथ्याहारकारक है । करण संस्कारपरक है संस्कार से धान गुरु और लाजा लघु होती है । दूध और मछली का एक साथ पकाना मिथ्याहारत्व जनक है। राशि द्रव्य के अवयव या समुदाय के परिमाण को कहते हैं । यह परिमाण अधिक प्रयुक्त होना या अत्यल्प प्रयोग करना मिथ्याहारजनक होता है । देश, द्रव्य की उत्पत्ति और प्रचार का विचार प्रस्तुत करता है । किस भूमि में कौन द्रव्योत्पत्ति हुई है उसका भी सम्बन्ध आता है | हिमाचलोत्पन्न ओषधियों की अपेक्षा विन्ध्यप्रदेशादि की वनस्पतियाँ हीन वीर्य होती हैं । अप्रशस्त भूम्युत्पन्न द्रव्य मिथ्याहारत्व कारक होता है यह किसी at अविदित नहीं है । काल का भी परिणाम होता है । नित्यग या आवस्थिक काल at विना विचार किए प्रयुक्त द्रव्य मिथ्याहार का कारण बनता है। कब किस दोष का राज्य है कौन गुणभूयिष्ठ पदार्थ किस ऋतु या काल में प्रयुक्त होना चाहिए इसका For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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