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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८२ विकृतिविज्ञान मृत्यूत्तर परीक्षा करने पर यकृत, प्लीहा और फुफ्फुसों में सामान्य अधिरक्तता स्पष्ट देखी जाती है । वृक्कों में कुछ गहरा लाल रंग हो जाता है तथा नालिकाओं में मेघसम शोथ,अल्प स्नैहिक परिवर्तन तथा जीवित रोगी के मूत्र में कुछ श्वितिमूत्रता (albuminuria ) एवं रक्त के लाल कर्णो की उपस्थिति एवं निर्मोकोपस्थिति ( presence of casts) देखी जाती है । अब हम नीचे यकृत, प्लीहा और फुफ्फुस की निश्चेष्टातिरक्तता का विचार करते है : -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 यकृत् की निश्चेष्टातिरक्तता — इसका प्रमुख कारण अधरामहासिरा (inferior vena cava ) का पश्चपीड़न ( back pressure ) है जिसमें याकृत सिरा अपना रक्त प्रदान करती है । अतः यकृत् की निश्चेष्टातिरक्तता का प्रथम परिणाम उसकी केन्द्रिय ( central ) एवं अन्तर्खण्डीय ( interlobular ) सिराओं में रक्ताधिक्य तथा उनके प्राचीरों के अभिस्तार में देखा जाता है । इसके कारण केशालों तथा स्रोतसाभों में तनाव ( distension ) होने लगता है । पश्चपीड़न के कारण केन्द्रिय सिराओं के चारों ओर की कोशाएँ विषाक्त हो जाती हैं जिसके परिणामस्वरूप उनमें पहले स्नैहिक विहास ( fatty degeneration ) होता है और फिर अपुष्टि (atrophy ) हो जाती है । यह क्रिया केन्द्र से परिणाह ( from centre to peri phery ) चलती है | अतः एक प्रवृद्ध विक्षत को देखने से ज्ञात होता है कि पहले यकृत्कोशाओं का एक नष्ट हुआ केन्द्रिय-कटिबन्ध है जो उपखण्डों ( lobules ) के परिणाह तक पहुँचा रहता है प्रतिहारिणी अवकाश ( portal spaces ) का आस्तर ( lining ) करने वाले कोशा प्रायः स्वस्थ रहते हैं । यकृत् धातु में रक्त के लालकण इतस्ततः बिखरे हुए मिलते हैं । मध्यभाग में बहुत से रङ्ग द्रव्य भी बन जाते हैं इनमें लालकणों से निर्मित शोणायसि ( haemosiderin) मुख्य होती है । इन सब कारणों से उपखण्डों के केन्द्रिय भागों में तन्तूत्कर्ष की सम्भावना अधिक प्रगट होती है । प्रारम्भ में यकृत् चिकना और बहुत परिमाण में द्रव एवं रक्त के कारण काफी फूला हुआ दिखाई देता है । उसे ऊपर से स्पर्श किया जा सकता है । काटने से उसकी आकृति कति मिलती है । उसका केन्द्र रक्तस्राव एवं रक्ताभरण के कारण गहरे लालरंग का तथा परिणाह स्नैहिक विहास के कारण आपीत श्वेत रंग का दिखलाई देता है । केन्द्रिय कोशा अपुष्ट हो जाते हैं और इसलिए यकृत् की आकृति जायफल ( nutmeg ) के सदृश देखी जाती है । इसी के कारण उसे जातीफल यकृत् ( nutmeg liver ) के नाम से बोला जाता है । आगे चल कर यकृत् का आकार घट जाता है उसके कोशाओं तत्कर्ष हो जाता है जो सिकुड़ कर धरातल को विषम कर देता है । इसी को. हृद्यकृद्दाल्युदर या श्याव काठिन्य ( cardiac cirrhosis or cyanotic induration ) कहते हैं । प्लीहा की निश्चेष्टातिरक्तता - प्लीहा की आकृति चर्मकन्दुक ( क्रिकेट की गेंद ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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