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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ विकृतिविज्ञान जब इस प्रकार की शाख रहित धमनी को कोई अन्तःशल्य अवरुद्ध कर देता है तब उससे सिञ्चित प्रदेश में रक्त जाना बन्द हो जाता है और वहां श्वेत ऋणास्र बनता है। प्रारम्भ में थोड़ी रक्ताधिक्य की अवस्था आती है तदुपरान्त रक्तरस ऊतियों में परिवेध ( permeate ) करने लगता है तथा वहाँ वह जमने लगता है। इसके कारण ऊतियों की मृत्यु होने लगती है और बहिर्गत लालकों का अंशन होने लगता है जिससे बहुत सी शोणवर्तुलि उस क्षेत्र के बाहर चली जाती है और शेष कणमय शोणायसि (हीमोसाइड्रीन-haemosyderin ) रूप में बच जाती है। इस कारण से तथा आगे इस भाग में रक्त आ नहीं सकता अतः वह क्षेत्र प्रथम गुलाबी और फिर श्वेत हो जाता है, ऊतिकोशाओं में आतंचनजन्य विशोणिक मृत्यु ( coagulative ischaemic necrosis ) हो जाती है। उनकी न्यष्ठीला लुप्त हो जाती है। कोशारस कणदार एवं उषसिप्रिय (eosinophil ) हो जाता है ग्रन्थि युक्त (glandular) अंगों में अधिच्छदीय कोशाओं का नाश होने पर भी संधार ( stroma.) काफी समय तक बना रहने से उनके स्वरूप में अन्तर नहीं आता। जब कहीं भी मृत ऊति शरीर में हो जाती है तो वह समीपस्थ सजीव ऊति को प्रक्षुब्ध कर देती है। इसके कारण ऋणास्र के चारों ओर एक सारम्भिक या प्रपाकी ( inflammatory reaction) प्रक्रिया देखी जाती है उसकी केशिकाएँ चौड़ जाती हैं और मृत ऊति के चारों ओर एक अधिरक्तिक ( hyperaemic ) कटिबन्ध बना लेती हैं और उनसे भक्षक श्वेतकण निकल कर मृत ऊति पर आक्रमण करते हैं जो एक प्रकार के प्रोभूजनांशी किण्व (proteolytic ferment ) का उदासर्जन करते हैं, तथा स्वतः मृत उतियों में आत्मपाचन ( autolysis) होते रहने से समस्त विनष्ट पदार्थ टुकड़े टुकड़े होता रहता है। इधर स्वस्थ ऊतियों से नई रक्तवाहिनियाँ तथा तन्तुरुह् ( fibro blast ) उत्पन्न होते हैं। जो धीरे धीरे आरक्त कणमय ऊति द्वारा स्थानच्युत कर दिये जाते हैं। इस प्रकार जीवित ऊतियों के विनाश की मरम्मत की जाती है। तन्तुरुहों के प्रवृद्ध होने पर वे तान्तब ऊति में परिणत होकर आगे चल कर सङ्कुचित हो जाते हैं। यह सङ्कोच वाहिनियों के मुख को भी बन्द करके श्वेत तान्तवीय व्रणवस्तु का निर्माण करता है। यह तन्तूत्कर्ष की क्रिया परिणाह से केन्द्र की ओर जाती है । यदि ऋणास्र अधिक बड़ा हुआ हो तो वहाँ कणमय ऊति के बनने के पूर्व ही आत्मांशन होकर द्रवण ( liquefaction) हो जाने से एक कोष्ठ (सिस्ट-cyst) का निर्माण भी हो सकता है। अब नीचे विभिन्न अंगों में पाये जाने वाले ऋणास्रों का वर्णन किया जाता है। फुफ्फुस के ऋणास्त्र जब कभी वक्षप्रदेश में अकस्मात् तीव्रशूल हो साथ में स्वल्प रक्तष्ठीवन भी हो एवं फुफ्फुसच्छद में घर्षण ध्वनि मिले तो समझ लेना चाहिए कि अन्य अनेक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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