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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान कोशा (ganglion cells ) मृत हो जायेंगे। यदि कुछ समय के लिए किसी वृक्क की धमनी को बन्द कर दिया जावे तो वृक्क के कितने ही अधिच्छदीय कोशा (epithelial cells ) नष्ट हो जावेंगे। पर यदि त्वचा वा संयोजी ऊति के कोशाओं में रक्तसंवहन कम कर दिया या रोक दिया जाय तो बहुत कम प्रभाव पड़ेगा। अन्तःशल्य की रचना के परिणाम-कोई भी साधारण सा अन्तःशल्य शरीर के अन्दर या तो प्रचूषित हो जाता है अथवा प्रगुणित धमनीपाक (proliferativearteritis ) तथा समंगीकरण ( organisation ) कर लेता है। औपसर्गिक अन्तःशल्य तीव्र धमनीपाक का कारण देखा जाता है। कभी कभी तो उसके कारण धमनीविस्फार (aneurysm ) हो जाता है जिसे औपसर्गिक धमनीविस्फार ( mycotic or infective aneurysm ) कहते हैं। आगे चल कर यह फूट जाता है और उसमें से बहुत अधिक रक्तस्राव देखा जाता है। अन्तःशल्यों के साथ यदि उग्रतम स्वरूप के जीवाणु भरे हुए हैं तो अन्य परिणामों के साथ साथ स्थानिक या सार्वदैहिक ( local or general ) पूर्याभवन ( suppuration ) होने लगता है । अब नीचे ३ प्रकार के अन्तःशल्यों का वर्णन और करके इस प्रकरण को समाप्त किया जाता है। १. वातान्तःशल्यता ( Air Embolism) जब कभी अधिक मात्रा में सिराओं में वात (हवा) का प्रवेश होने लगे तो वह भी अन्तःशल्यता उत्पन्न कर सकती है। ऐसा ४ स्थानों में सम्भव है१. जब इंजैक्शन ( injection ) करते समय डाक्टर अपनी उद्गारिका (सिरिज) में हवा को सिरा द्वारा अन्दर भेज दे।। २. ग्रीवा के शस्त्रकर्म (आपरेशन) के समय अकस्मात् कोई बड़ी सिरा खोल दी जावे । अथवा३. यक्ष्मा के उपचार में कृत्रिम वातोरस ( artificial pneumothorax ) के लिए दिये जाने वाले वात के अन्तःक्षेपण में असावधानी हो जावे । ४. वाति बुद्बुद रोग (कायसन का रोग) में अधिक वातपीडन पर रखा हुआ रोगी ज्यों ही बाहर आता है वात का पीडन घटने से नाइट्रोजन एक दम उसके शरीर से फूटने लगती है जो मार्ग में सिराओं में पहुँच कर अन्तःशल्यता कर सकती है। वातान्तःशल्यता का परिणाम निम्न चार शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है१. श्यावता (cyanosis) ३. संन्यास ( coma ) तथा २. श्वासकृच्छ्रता ( dyspnoea) ४. मृत्यु ( death) . । परन्तु अल्पमात्रा में सिरा में प्रविष्ट वात में २१% जारक ( आक्सीजन) वात होने से वह धातुओं से शोषित करली जाती है। . For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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