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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ रक्तपरिवहन की विकृतियाँ प्रवाहित धारा इसे झट से काट देती है और वह कटा हुआ अन्तःशल्य सर्व सामान्या रक्तधारा में मिल जाता है। उपर्युक्त अवस्थाओं में थोड़ी सी भी अशान्ति या हलचल अथवा श्रम के कारण किसी भी घनास्र का छोटा या बड़ा खण्ड टूट कर अलग हो जाता है। पैर की सिराओं, गर्भाशयिक एवं श्रोणिप्रदेश की सिराओं के घनास्र इस प्रकार की आकस्मिकताओं ( accidents) के उत्पन्न करने वाले प्रधान कारण हैं उदर प्रदेश में शस्त्रकर्मोपरान्त भी यह हानि प्रदायक प्रवृत्ति बनी रहती है। आपरेशन के दसवें दिन जब रोगी कुछ हिलना-दुलना प्रारम्भ कर देता है तब यह प्रवृत्ति बहुत अधिक देखी जाती है। अन्तःशल्यों की सबसे प्रथम गिरफ्तारी उन प्रथम वाहिनियों में देखी जाती है जो इतनी छोटी होती हैं कि उनमें से अन्तःशल्य और आगे बढ़ने में असमर्थ हो जाते हैं । यह पकड़ या तो किसी वाहिनी के द्विशाखन ( bifurcation ) के स्थान पर होती है या जब वाहिनी का व्यास एक दम छोटा हो जाता है। वैसे अन्तःशल्य इतने भी सूक्ष्म हो सकते हैं जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म केशिकाओं से भी होकर जा सके और कोई भी लक्षण प्रगट न होवे अथवा नाड़ी वाहिनियों से तो सरलता से चले जावें पर छोटी वाहिनियों में पकड़ लिए जावें। नियमतः या तो वे धमनियों के प्रथम कुलक (set ) में गिरफ्तार हो जाते हैं या वे अपने उद्गमस्थल तथा अन्य वाहिनियों के मध्य के मार्ग में पकड़े जा सकते हैं जो अन्तःशल्य दक्षिण हृदय, सांस्थानिक सिराएँ, या फुफ्फुसाभिगा धमनियों द्वारा जाते हैं वे फुफ्फुस की केशिकाओं द्वारा पकड़ लिए जाते हैं। तथा जो फुफ्फुसोत्थ सिरा (pulmonary veins), वामालिन्द, वाम निलय या धमनियों से निकलते हैं वे सांस्थानिक धमनियों और उनकी केशिकाओं में खास करके प्लीहा, मस्तिष्क या वृक्कों में पकड़ लिए जाते हैं। केशिकाभाजि (प्रतिहारिणी) सिरा ( portal vein) के अन्तःशल्य यकृत् में या फुफ्फुसोत्था सिरा में पकड़े जाते हैं। ___ अन्तःशल्य के आकार, विस्तार और उसकी प्रकृति पर अवरोध निर्भर करता है। यदि वह मृदु होगा तो अपना स्वरूप लम्बोतरा करके वाहिनी में घुस जावेगा तथा सारी धमनी को ही अवरुद्ध कर देगा। पर यदि आकार विषम और रचना सुदृढ़ है तो वह वाहिनी को पूर्णतः नहीं भर पावेगा और थोड़ा थोड़ा रक्त का प्रवाह जारी रहेगा। अन्तःशल्य के एक स्थान पर पकड़ जाने से उसके आगे और पीछे रक्त में सान्द्रता होकर द्वितीयक घनास्र की उत्पत्ति हो जाती है। विरोधाभासिक अन्यःशल्यता ( Paradoxical Embolism) जब कोई घनास्र सिरा में उत्पन्न होकर अपना अवस्थान वृक्कों या मस्तिष्क में कर जावे तथा उसका फुफ्फुस पर कोई भी प्रभाव न पड़े तो वह वैमत्यिक अन्तःशल्यता कहलाती है । साधारणतः सिरा द्वारा जाने वाले अन्तःशल्य पहले फुफ्फुसों में विकार करते हैं पर यहाँ वैसा नहीं होता। इसके सम्बन्ध में २ कारण दिये जा सकते हैं: For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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