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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ विकृतिविज्ञान होने पर रक का परिवहन रुक जाता है और वहाँ पर उपसर्गी जीवाणु अपना आक्रमण एवं वृद्धि करने लगते हैं। इस कारण वहाँ उपसर्गजन्य प्रसपी कोथ हो जाता है। अन्त्रपुच्छीया सिरा में रक्तावरोध होने से अन्त्रपुच्छ ( appendix vermiformis) में कोथ हो सकता है। ____३. वातिकोथ (Gas gangrene )-यह वातिजन प्रावरगदाणु (cl. welchii ), शोफगदाणु (ol. oedemantous ), एवं विषूची आकुन्तलाणु (v. Septique ) नामक जीवाणुओं में किसी या सभी के दूषित व्रण में पहुँच जाने से विशेष होता है । पेशियों में वह कोथ बहुत देखा जाता है । गैस की उत्पत्ति ऊति की वैषिक मृत्यु (toxic necrosis of the tissue ) के कारण होती है। ये तीनों जीवाणु वातमी (anaerobe ) होने से शरीर के भीतरी अङ्गों में ही यह कोथ अधिक मिला करता है। ४. मधुमेहजनित (Diabetic gangrene )- यह चिरकालीन मधुमेह पीड़ित रुग्णों में पाया जाता है। यह पैर के अङ्गुष्ठ से प्रारम्भ होता है। इसमें शरीर की प्रायः सभी ऊतियों में शर्करा की बहुलता होने से उपसर्ग की सम्भावना अधिक रहती है । इसकी धमनियों में वार्धक्य कोथ जैसी विकृति देखी जाती है। ५. वार्धक्यकोथ (Senile gangrene )-यह वृद्धावस्था में पाया जाने वाला शुष्ककोथ है । स्वल्प भी आघात होने से, शीत या सन्ताप का अधिक सम्पर्क आने से, या ऐसे ही अन्य कारणों से यह कोथ उत्पन्न होता है। कारण यह है कि जहाँ आघात होता है वहाँ रक्त की आमद रुक जाती है पर विकास जारी रहता है। दूसरे वृद्धावस्था के कारण धमनियाँ कड़ी पड़ जाती हैं उनकी प्रत्यास्थता घट जाती है और उनका ग्यास (calibre ) कम हो जाता है अतः उनके द्वारा आघातप्राप्त रक्तविहीन मात्र को रक्त का पहुँचना बहुत ही कम हो जाता है। इधर वृद्ध हृदय की गति भी बहुत मन्द होने से रक्तसंवहन की गति भी मन्द हो जाती है। ऐसा. रक्त यदि स्वल्प काल के लिए भी कहीं रुक गया तो वहीं रक्तसान्द्र होकर कोथ का कारण बन सकता है। यह कोथ पैर के अङ्गुष्ट से प्रारम्भ होकर धीरे धीरे कटि तक आ सकता है। ६. रेनो का रोग ( Renaud's discase)-यह प्रायः नवयुवतियों में होने वाला रोग है। किसी अंग में धमनियों में शीत के कारण अंगग्रह (spasm) होकर रक्त का संवहन स्वयं रुक जाता है और वहाँ शुष्क कोथ प्रारम्भ हो जाता है। यदि वहाँ उष्णता पहुँचाई जावे या प्रथम स्वतन्त्रवातनाडी संस्थान या स्वायत्तचेतासंहति ( sympathetic ) के सूत्र काट दें तो यह कोथ रोका जा सकता है। धान्यरूदोष (अर्गट-विषता) में भी ऐसी ही परिस्थिति उत्पन्न होती हुई देखी जाती है। उसमें धामनिक सङ्कोच ( arterial spasm) बहुत अधिक बढ़ जाता है। वाहिन्यिक शोथ ( thrombo angiitis obliterans) में भी रक्त का अवरोध कोथोत्पादक देखा जाता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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