SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रक्तपरिवहन की विकृतियाँ २६१ आर्द्रकोथ के २ प्रकार देखे जाते हैं एक परिलिखित (circumscribed ) और दूसरा प्रसी : spreading)। प्रथम किसी हिंसा ( mechanical violence) या परिदग्धता ( cauterisation ) के कारण या किसी स्थान विशेष के रक्तावरोध का परिणाम है तथा द्वितीय में कोथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक धीरे धीरे चढ़ना प्रारम्भ करता है । इस क्रिया में जीवाणु बहुत सहायक सिद्ध होते हैं जो एक के बाद दूसरी नई ऊतियों पर आक्रमण करके उसे कुपित कर देते हैं तथा कोथ भी वहाँ तक बराबर चढ़ता जाता है जहाँ तक कि रक्त की पहुँच नहीं हो पाती। पर जहाँ अंग को रक्त की अपरिमित राशि मिल सकती है वहाँ जाकर यह सीमाबद्ध होता और रुक जाता है। मृत और सजीव ऊतियों की यह एक सीमा खिंच जाती है। मृत अति निर्मोक ( slough ) रूप में पड़ी रहती है तथा स्वस्थ ऊति से स्वस्थकणमय ऊति (granulation tissue ) अपनी क्रिया प्रारम्भ करती है तथा दोनों के संगम स्थल पर व्रणशोथ होने लगता है। जब कोई ऊति मृत हो जाती है तो उसे सजीव ऊति से सम्बद्ध करने वाले तन्तु मृदु हो जाते हैं तथा सितकोशाओं के प्रोभूजनांशिक विकर ( proteolytic enzymes ) तथा आत्मपाचक किण्व (autolytic ferments) उन्हें खाकर शोषित कर लेते हैं। इधर सजीव ऊति में अतिरक्तता खूब रहती है। यही नहीं सजीव ऊति जितनी ही कम रक्त वाली होगी उतनी ही देर में उसको मृत धातु से पृथक् किया जा सकेगा। कलाओं या स्तरों ( fascia) कण्डराओं (tendons) और अस्थियों ( bones ) की गणना इन्हीं में होती है। __ अधिक भीतरी भाग में कोथ वा पूयीभवन होने से नालों के मृत ( fistulae ) का निर्माण होता है। अधिक भीतरी भागों के मृत होने पर और विकारी जीवाणुओं के वहाँ तक न पहुँचने पर उनका आत्मपाचन हो जाता है। यदि विकारी जीवाणु पहुँचते भी हैं तो वे पूयोत्पत्ति करते हैं कोथोत्पत्ति नहीं । पूय के लिए नाल एक मार्ग मात्र है। नैदानिकीय दृष्टि से कोथ के भेद ( Clinical varieties of gangrenes ) : १. अन्तःशाल्यिक कोथ ( Embolic gangrene )-जब एक आतंचि (a piece of blood clot ) जो हृदय के वाम भाग से, या महाधमनी प्राचीर से या अन्य किसी अंग को धमनी से चलकर रक्त के साथ संवहन करता है तो अन्तःशल्यता के द्वारा वाहिनी को अवरुद्ध कर ले सकता है। इसके कारण शुष्ककोथ मिलता है। किसी रुग्ण को अभिघात होने पर यदि घनास्रोत्कर्ष हो जावे तो भी यह कोथ देखा जा सकता है। २. उपसर्गजन्य कोथ ( Gangrene due to infection )-यह प्रायः महास्रोत में देखा जाता है जहाँ कण्ठपाशयुक्त आन्त्रवृद्धि (strangulated hernia ), 3177FAIT ( intussusception ) a merania ( volvulus ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy