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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २१५ जाना रोक देता है और इस कारण उनमें विहास देखा जाता है असंगत और प्रमाणशून्य है। ___ अन्तरालित ऊतीय विक्षत ( interstitial lesions ) यद्यपि अण्वीक्ष के मन्द विशालन ( low magnification ) में सुस्पष्ट नहीं होते परन्तु वे इस रोग के वास्तविक आवश्यक लक्षण माने जाने चाहिए। अन्तरालित ऊति में व्रणशोथकारी कोशाओं की प्रसर भरमार होती है तथा कहीं कहीं उनकी संचिति की नाभियाँ भी बन जाती हैं। ये नाभियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि वे व्यापक मस्तिष्कपाक (epidemic encephalitis) में बिल्कुल भी नहीं देखी जाती हैं। बहुत से बहुन्यष्टिकोशा भी देखे जा सकते हैं। कुछ नाभियाँ ऊतिमृत्यु के प्रमाणस्वरूप भी होती हैं। इनमें से कोई भी घटना व्यापक मस्तिष्कपाक में नहीं देखी जाती। यदि साधारण अभिरंजन किया गया तो हमें लसाभ प्रकार के कोशा ही देखने को मिलते हैं जिनके साथ साथ कुछ बहुन्यष्टिकोशा रहते हैं। पर यदि विशिष्ट रजत अभिरंजन किया गया तो पूर्णतः विचित्र स्वरूप दिखलाई देता है। प्रसर और नाभ्य स्राव में अब हमें अणुश्लेष ( microglia ) मिलता है इन्हें होगा के कोशा भी कहते हैं और ये वातनाडी संस्थान के स्वच्छता कार्य में विशेषतः भाग लेते हैं तथा वे संयुक्त कणात्मक कोशाओं ( compound granular corpuscles ) या स्नेहकणकोशाओं (fat granule cells) के अग्रेसर ( precursor ) होते हैं। इन अणुश्लेष कोशाओं का पर्याप्त परिगुणन रोग की प्रारम्भावस्था से ही चल पड़ता है। साधारण चित्रपट्टियों में इन कोशाओं की न्यष्टियाँ ही अभिरंजित होती हैं उनके प्रवर्णों को प्रगट करने के लिए होगा की रजत प्रांगारीय अभिरंजना विधि का प्रयोग अत्यावश्यक होता है। ये प्रवर्ध पहले सूज जाते हैं और फिर विलुप्त हो जाते हैं उनका कोशारस रसधानीयुक्त (vacuolated ) हो जाता है। अनेक जो वातनाडी भक्षिकोशा देखे जाते हैं वे अणुश्लेष कोशा ही होते हैं। रोग की तीव्रावस्था में ताराश्लेष कोशा (astroglia cells ) प्रगुणित नहीं होते यद्यपि आगे जब व्रणवस्तु ( scar ) बनती है तब उसके बनाने वाले यही होते हैं। कोण नामक विद्वान् ने अभिरंजना की स्पैनिश विधियों का प्रयोग करके यह सिद्ध किया है कि इस रोग के कारण उन भागों में भी, जहाँ साधारणतया विक्षत होने की कोई सम्भावना नहीं थी, ताराश्लेष, अल्पचेतालोमश्लेष तथा अणुश्लेष में विहासात्मक परिवर्तन पाये जाते हैं। सुषुम्नाकाण्ड के वातनाडी कोशाओं में स्थायीरूप में विहासात्मक लक्षण देखे जाते हैं चाहे रोगी को सौषुम्निक घात (spinal paralysis) के कोई लक्षण न प्रगट हुए हों। परिवर्तनों की उग्रता अग्रभंगों में विशेष होती है परन्तु पश्चशृंग तथा क्लार्क नाडी तन्त्रिका के कोशाओं को भी थोड़ा प्रसाद अवश्य ही मिलता है। अग्रशृंगों के प्रगण्ड कोशाओं (ganglion cells ) में सभी प्रकार के विहासीय लक्षणप्रोदकणिका ( Nissl granules ) के अभाव से लेकर न्यष्टि की उत्केन्द्रता तथा कोशा की पूर्ण विलुप्ति तक मिलते हैं। ये प्रगण्ड कोशा जब भर जाते हैं तो इनके चारों For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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