SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ विकृतिविज्ञान रुग्णों का अध्ययन किया । यह नहीं भूलना चाहिए मैकईकर्न ने दिया है | उसने बतलाया है कि उसने जितने वे सभी सुषुम्नाशीर्षीय प्रकार ( bulbar type ) के थे कि मृत्यून्मुख रोगियों में सुषुम्नाशीर्षक में विक्षत अवश्य देखे जाते हैं क्योंकि मृत्यु का का कारण सुषुम्नाशीर्षस्थ श्वसनकेन्द्र का घात ही इस रोग में होता है । तानिकाओं में रक्ताधिक्य और प्रारम्भिक विक्षत होने के कारण रोग के प्रारम्भ में जो दो लक्षण शूल और ग्रीवास्तम्भ तथा अनाम्य पृष्ठ ( rigid back ) देखे जाते हैं उन्हें तानिकी विक्षतजन्य कुछ लोग कहते हैं परन्तु हर्स्ट ने बन्दर में यह रोग उत्पन्न करके तुरत मारकर उसकी सुषुम्ना का अवलोकन करके ज्ञान यह प्राप्त किया कि उसकी तानिकाएँ स्वस्थ थीं और उनमें कोई व्रणशोथ के लक्षण भी नहीं थे परन्तु सुषुम्ना के अग्रशृंगस्थ चेष्टावहकोशाओं में विहास का आरम्भ हो गया था । तानिकीय अधिरक्तता के साथ साथ उनसे कुछ व्रणशोथात्मक स्राव भी अत्यधिक मात्रा में होता हुआ देखा जाता है । I मस्तिष्क तथा सुषुम्ना में इस रोग में जो विज्ञत देखे जाते हैं वे श्वेत और धूसर दोनों पदार्थों में होते हैं परन्तु धूसरद्रव्य में वे जितने उग्र होते हैं उतने श्वेतद्रव्य में नहीं होते । स्वयं सुषुम्ना में गम्भीर विक्षत न केवल अग्रशृंगों (anterior horns) में ही होते हैं अपि तु पश्चशृङ्गों तथा क्लार्क नाडीतन्त्रिका ( Clark 's column ) में भी मिलते हैं । 'वे सुषुम्नाशीर्षक, उष्णीषक, मध्यमस्तिष्क, धमिल्लक की दन्तुरकन्दिका ( dentate nucleus ) तथा मस्तिष्कमूल पिण्डों में भी देखे जाते हैं । उनके अतिरिक्त पश्चमूल प्रगण्डों ( posterior root ganglia ), त्रिधारग्रंथि ( Gasserian ganglion ), अग्रनाडीमूल तथा पश्चनाडीमूलों में भी पाये जाते हैं । रक्तवाहिनियों, अन्तरालित ऊतियों तथा प्रगण्ड कोशाओं में भी विशेष विशेष परिवर्तन देखे जाते हैं । रक्तवाहिनियों में अत्यन्त रक्ताधिक्य हो जाता है तथा रक्तस्त्राव प्रायशः पाये जाते हैं। छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की रक्तवाहिनियों में केन्द्रिय वातनाडी संस्थान के व्रणशोथ के प्रमाणरूप परिवाहिन्यकोशीय मणिबन्ध पाये जाते हैं ये कोशा मुख्यतः लसीकोशा होते हैं जिनके साथ में कुछ प्ररस कोशा भी देखे जाते हैं ये बहुत करके तो बाह्य चोल के वर्चो - रौबिन अवकाशों तक ही सीमित रहते हैं पर कभी आलाि होकर हिजावकाश (perivascular space of His ) में भी चले आते हैं। ऐसा लगता है कि ये सभी कोशा अधिकांशतया रक्त से प्राप्त होते हैं। परिवाहिन्य विक्षत व्यापक मस्तिष्क पाक के विक्षतों के समान ही होते हैं । परिवाहिन्य विक्षत मुख्यतः मध्यमस्तिष्क या मस्तिष्ककाण्ड में होते हैं तथा वातनाडी विहास वहाँ कम होता है अतः विक्षत और विहास का एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता । जो लोग यह समझते हैं कि वातनाडी विहास गौण क्रिया है जो परिवाहिन्य विक्षतों के उपरान्त होती है तथा इन विक्षतों के कारण जो स्राव निकलता है वह वाहिनियों को संकुचित करके वातनाडियों तक रक्त का For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy