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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ विकृतिविज्ञान अब हम तीव्र भग्र धूसरसुषुम्नापाक या तीव्र अग्र सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक का वर्णन करते हैं ।. तीव्र अग्र सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक या शैशवीयाङ्गघात (Acute anterior Poliomyelitis or Infantile Paralysis) 1 सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक उन वात रोगों में से एक है जो स्थानिक या जानपदिक किसी भी रूप में उत्पन्न हो सकता है । इस शताब्दी के आरम्भिक चतुर्थांश काल में इसका जगद्व्यापी प्रभाव देखा जा चुका है । यह शिशु रोग न हो कर बालरोग है और १५ वर्ष या उनसे भी बड़े बालकों में देखा जाता है । यह रोग ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में हर वर्ष आता और शीत से पूर्व चला जाता है । ग्रीष्म ऋतु में आने के कारण कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि कदाचित् इसका संक्रामण ( transmission ) किसी की प्रसारक ( insect vector ) द्वारा होता होगा और मक्खी को इसका कर्ता मानते थे जो आज एक भ्रममात्र रह गया है । इस रोग का प्रसारकर्ता न कोई कीट है और न इस रोग से पीडित एक दुखी प्राणी अपि तु एक स्वस्थ वयस्क वाहक होता है जिसकी नासाग्रसनी में इस रोग का करने वाला एक विषाणु रहता है । यदि उस व्यक्ति को यह रोग हो गया तो उस विषाणु की रोगसंवाहन की शक्ति नष्ट हो जाती है पर यदि व्यक्ति रोग से पीड़ित न हो सका तो उसकी नासाग्रसनी में यह विषाणु २-३ सप्ताह जीवित रहता तथा रोग का प्रसार करता रहता है । चूँकि रोगी इस रोग का प्रसार करने में असमर्थ रहता है इसी कारण आतुरालयों में सामान्य आतुर कोष्ठों ( wards ) में भी इस रोग से पीडितों को प्रविष्ट कर लिया जाता है । सुषुम्ना धूसरद्रव्यपाक एक पाव्यविषाणु ( filtrable virus ) द्वारा होने वाला रोग है । यह एक विशुद्ध चेताकर्षी या वातोत्याकर्षी ( neurotropic ) रोग है । यह रोग कृन्तकों ( rodents ) द्वारा फैलाया जा सकता है जिसका प्रमाण ह है कि यदि किसी घर में इस रोग से पीडित कोई प्राणी हो और उसके यहाँ के किसी चूहे को पकड़ कर परीक्षा की जावे तो उसमें यह रोग मिलता है । यह रोग नासामार्ग पर विषाणु का लेपन करके बन्दरों में भी उत्पन्न किया जा सकता है परन्तु मनुष्यों में इस पद्धति से रोगोत्पत्ति नहीं की जा सकती । रोगकाल में तथा रोगोत्तरकाल में इस रोग के विषाणु को रोगी के मल में भी देखा गया है और उसे वहाँ से पृथक् किया जा सकता है । यह चुद्रान्त्र, बृहदन्त्र तथा आन्त्रनिबन्धनी के लसगण्डों (lymph nodes of mesentery ) में भी पाया गया है । विषाणु की मल में प्राप्ति जितनी सरल है उतनी सिंघाणक ( nasal washings ) में सरल नहीं है । मल कई सप्ताह तक उपसृष्ट देखा जाता है परिणामों से ऐसा प्रतीत होता है कि शैशवीयाङ्गघात प्रथमतः आन्त्रिक रोग है न कि श्वसनमार्गीय । इससे यह भी लगता है कि जैसे आन्त्रिक ज्वरादि के उपसर्ग अशुद्ध For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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