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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव २०५ में। वाहिन्य और विहासात्मक विक्षतों का आपस में कोई भी सम्बन्ध ब्वायड नहीं बैठा सका है। उसकी दृष्टि में वे विभिन्न तथ्यों पर अवलम्बित जान पड़ते हैं । सुषुम्ना में जो परिवर्तन होते हैं वे मस्तिष्क के समान ही होते हैं और वे कुछ रोगियों में देखे भी जाते हैं। सब में हों ऐसा अनिवार्य नहीं। बरोज की दृष्टि में शीर्षण्या नाड़ियों में भी व्रणशोथ देखा जा सकता है पर अन्यों ने इधर कोई विशेष ध्यान दिया नहीं ऐसा प्रतीत होता है । व्रणशोथात्मक विक्षतों का प्रसार न तो बाह्यक में होता है और न धमिल्लक में। अपि तु वह सर्वप्रथम मध्य मस्तिष्क में होता है उसमें भी ब्रह्मद्वार सुरङ्गा के चारों ओर के क्षेत्र में विशेष प्रभाव पड़ता है। दूसरा स्थान आता है मस्तिष्क मूल पिण्डद्वय ( basal ganglia) का । तृतीय स्थान है उष्णीषक ( pons varolii ) का। तत्पश्चात् सुषुम्ना का स्थान है। इस प्रकार यह रोग विशेषतः मस्तिष्क काण्ड का रोग है। सुषुम्ना में विक्षत बहुत ही कम और कभी कभी पाये जाते हैं। कुछ विक्षत वातनाडीसंस्थान के बाहर भी देखे गये हैं। इनके कारण हमें रोग के सम्बन्ध में कुछ न कुछ अधिक ज्ञान ही होता है। ब्वायड के सम्पूर्ण रुग्णों में से ३ के अपिहृत् ( epicardium ) उदरच्छद, महाप्राचीरा पेशी के धरातल तथा फुफ्फुसावरण में अनेक नीलोहाङ्कीय रक्तस्राव देखे गये थे। वृक्कों में भी प्रायशः परिवर्तन मिले थे। वृक्क के मज्जक में अत्यधिक अधिरक्तता का मिलना अत्यन्त महत्त्व का चिन्ह है। वृक्क की परिवलित नालिकाओं ( convoluted tubules ) में असाधारण मात्रा में विहास मिलता है। नीचे हम मस्तिष्कपाक तथा सुषुम्नाधूसरद्रव्यपाक के विक्षतों की तुलनात्मक तालिका प्रस्तुत करते हैं । यद्यपि ये दोनों रोग स्पष्ट हैं पर इनमें विकृति का चित्र एक सा ही है इसी कारण इसकी आवश्यकता पड़ी है:मस्तिष्कपाक सुषुम्नाधूसरद्रव्यपाक १. यह मुख्यतः मध्यमस्तिष्क का रोग है। १. यह मुख्यतः सुषुम्ना का रोग है २. इसके विक्षतों की तीव्रता आरोही है। २. इसके विक्षतों की तीव्रता अवरोही है (ऊपर अधिक नीचे कम) । (ऊपर कम नीचे अधिक) ३. सुषुम्ना पर आघात हलका होता है ! ३. सुषुम्ना पर प्रचण्ड आक्रमण होता है ४. नाडीकन्दाणुभक्षण या प्रगण्डकोशा | ४. नाडीकन्दाणुभक्षण (neurono (ganglion cells ) नाश कम | phagia ) तथा प्रगण्डकोशा नाश होता है अत्यधिक होता है ५. कोशीय परिवाहिन्यभरमार देखी ५. कोशीय परिवाहिन्यभरमार के साथ जाती है तीव्रनाभ्यभरमार और ऊतिमृत्यु ( necrosis ) खूब होती है ६. बहुन्यष्टिकोशा बहुत कम मिलते हैं । ६. बहन्यष्टिकोशा खूब पाये जाते हैं For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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