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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १६७ नाभियों के द्वारा जो कभी कभी सम्पूर्ण प्रमस्तिष्क में विकीर्ण रहती हैं मस्तिष्कपाक का प्रमाण मिल जाता है। शेष मृत्यूत्तरपरीक्षा रोगाणुरक्तता का प्रमाण उपस्थित करती है जिसके कारण जीवितक अंगों (parenchymatous organs ) में मेघसमशोथ के प्रमाणादि मिलते हैं । नासाग्रसनी ( nasopharynx ) में अधिरक्तता दिखलाई देती है उसमें शोफ ( oedema ) तथा प्ररसकोशाओं तथा लसीकोशाओं का अन्तराभरण (भरमार ) खूब देखा जाता है। विरले ही रोगियों में मस्तिष्कगोलाणुजन्य हृदन्तःपाक देखा जा सकता है। कुछ ऐसे भी रोगी देखे गये हैं परन्तु सहस्रों में एक दो जहाँ मस्तिष्कछदपाक न होते हुए भी मस्तिष्कगोलाण्विक हृदन्तःपाक ( meningococcal endocarditis ) देखा जाता है। सन्धिपाक, परिहृत्पाक, पूयोरस , नासाकोटरपाक, अधिवृक्कीय रक्तस्राव ( adrenal haemorrhage ) आदि में से कोई भी उपद्रव साथ में देखे जा सकते हैं। परन्तु वे होते बहुत ही विरले रोगियों में हैं। ऐसा कहा जा सकता है और माना भी जा सकता है कि मस्तिष्कगोलाणु एक ऐसा रोगाणु है जो ऊर्ध्वश्वसनमार्गीय धरातल तथा मस्तिष्कनिलयीय अध्यस्तर के अतिरिक्त अन्य ऊतियों में बहुत कठिनाई से ही जम पाता है । ___ मस्तिष्कछदपाक में कटिवेध करके मस्तिष्कोद की प्राप्ति अवश्य करनी चाहिए। क्योंकि उसकी परीक्षा निर्णायक होती है । मस्तिष्कसुषुम्नातरल (मस्तिष्कोद) का पीडन बढ़ा हुआ मिलता है। वह स्वयं आविल (गॅदला) होता है, आविलता का प्रधान कारण तरल में कोशाओं की वृद्धि का होना है जो ३०० से ४०० तक प्रतिघन मि. मीटर स्थान में होती हुई देखी जा सकती है। कभी कभी प्रारम्भिक मस्तिष्कछदपाक में कटिवेध द्वारा प्राप्त मस्तिष्कोद पूर्णतः स्वच्छ मिलता है और उसमें कोशाओं की वृद्धि नहीं होती हुई देखी जाती पर यदि थोड़े समय बाद पुनः उसे निकाला जाय तो इतने समय में ही वह आविल मिल सकता है। तरल में प्रोभूजिन की मात्रा अधिक हो जाती है वर्तुलि का प्रमाण अत्यधिक बढ़ जाता है तथा विति भी पर्याप्त बढ़ती है। प्रोभूजिन ०.३ प्रतिशत से बढ़ कर ०.८ प्रतिशत तक हो जा सकती है। तरल की शर्करा सदैव घट जाती है और प्रायः नहीं भी मिलती। शर्करा के अभाव का प्रमुख कारण मस्तिष्कगोलाणु द्वारा मधुम का किण्वीकरण ( fermentation ) करना ही है । इस समय तक कोशाओं की संख्या एक घनमिलीमीटर स्थान में सहस्रों की हो सकती है। सबसे अधिक ज्ञान की प्राप्ति का साधन होती है चित्रपट्टी ( film )। उसे अण्वीक्ष ( microscope ) के नीचे रखने पर बहुन्यष्टिकोशा दिखलाई पड़ते हैं। यदि प्रतिदिन कटिवेध किया जावे तथा योग्य चिकित्सा चलती हो तो चित्रपट्टी में प्रतिदिन बहुन्यष्टिकोशाओं की संख्या घटती हुई देखी जा सकती है। उनका स्थान बृहत् एकन्यष्टिभक्षकोशा ( large mononuclear phagocytic cells) ले लेते हैं। वे तो For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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