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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ विकृतिविज्ञान गोलाणु ( micrococcus catarrhalis ) जो ग्रसनी में उपस्थित रहता i पैनसगुच्छ गोलाणु तो प्रकोष्ठीय तापांश पर ही संवर्धित हो जाता है परन्तु मस्तिष्क गोलाणु का संवर्द्ध करने के लिए रक्त के तापांश के बराबर ऊष्मा स्थिर रखनी पड़त है । मस्तिष्क गोलाणु स्वयं भी ४ प्रकार के होते हैं और उनमें से एक प्रकार क प्रतिलसी दूसरे के लिए उपयोग करने में कोई लाभ नहीं करती हुई देखी जाती । मस्तिष्कद के उपसृष्ट होने की रीति ( mode ) क्या है इसका अभी तक समाधानकारक उत्तर हस्तगत नहीं हो सका है । यह तो ठीक ही है कि जब जनपदोद्ध्वंस ( epidemic ) होता है तब ग्रसनीय उपसर्ग के द्वारा एक से दूसरे व्यक्ति तक उपसर्ग जाता है । स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों व्यक्तियों के गलों में मस्तिष्क गोलाणु बहुत बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं । अथ च व्रणशोथात्मक स्राव मस्तिष्क के आधार पर या मृणालान्तराल ( interpeduncular space ) में सर्वाधिक मात्रा में सञ्चित देखा जाता है । शिशुओं की शर्झरास्थि ( ethmoid bone ) के चालनीपटल में से होकर कुछ लसवहाएँ जाती हैं जो नासाग्रसनी तथा ब्रह्मोदकुल्या दोनों को एक दूसरे से जोड़ती हैं। हो सकता है कि यदि मनुष्यों में नहीं भी हो तो भी शिशुओं में उपसर्ग पहुँचने का सीधा मार्ग इन्हीं सवहाओं द्वारा हो सकता है ऐसी धारणा बनाली जा सकती है । यह धारणा ही धारणा है क्योंकि इसको पुष्ट करने वाले कोई प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं हो सके हैं । मस्तिष्कछदपाक से पीडित रुग्णों की झर्झरास्थि के चालनीपटलों में खोजने के जो भी प्रयत्न हुए हैं वे न तो इनमें इन न व्रणशोथ ही देख सके हैं । मस्तिष्कगोलाणु अथवा व्रणशोथ जीवाणुओं को ही पा सके हैं और आजकल जो सर्वाधिक मान्य मत है वह यह है कि मस्तिष्कछद प्रत्यक्षतः रक्तधारा द्वारा उपसृष्ट होती है । उस दृष्टि से इस रोग की ३ अवस्थाएँ स्वीकार की जाती हैं— (१) जब कि ऊर्ध्वश्वसनमार्ग विशेष करके नासाग्रसनी के ऊर्ध्व भाग में उपसर्ग पहुँचता है । (२) जब कि रक्तधारा उपसृष्ट होती है तथा (३) जब कि मस्तिष्कछद में उपसर्ग स्थित हो जाता है । प्रथमावस्था में जब कि रोग ऊर्ध्वश्वसनमार्ग में ही सीमित रहता है यदि वहाँ से आगे उपसर्ग न बढ़ा जो प्रायः देखा जाता है तो रुग्ण केवल वाहक ( carrier ) मात्र रह जाता है । कभी कभी केवल द्वितीयावस्था तक ही रह कर रोग रुक जाता है और उस समय मस्तिष्कछदपाक विरहित मस्तिष्कगोण्विक रोगाणुरक्तता ही देखी जाती है । तृतीयावस्था का अर्थ तीव्र मस्तिष्कछदपाक होता है । कतिपय लेखक उपरोक्त प्रदर्शित मत के स्वीकार करने में कई कारणों से असमर्थ हैं । उदाहरणार्थ, २४ से ४८ घंटे में मृत होने वाले घातक रुग्णों में जीवितावस्था के रक्तसंवर्ध तथा मृतावस्था के हृद्वक्त के संवर्धौ से मस्तिष्कगोलाणुओं की प्राप्ति होती है, निलयीय तरलों का संवर्ध भी अस्त्यात्मक होता है परन्तु मस्तिष्कच्छद प्रकृतावस्था में ही देखी जाती है । यदि सौषुम्निक प्रावरक ( spinal theca ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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