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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १८३ पश्चात् इनका आत्मपाचन इतनी द्रुतगति से होता है कि मानव मस्तिष्क छेदों में वे कदाचित् ही देखे जा सकते हैं। तीव्र प्रतिक्रियाओं में अल्पचेतालोमश्लेष और अणु श्लेष कोशाओं में कोन और पैनफील्ड को बहुत भारी अन्तरे मिला है। अणुश्लेष से जहाँ भक्षिकोशाओं की उत्पत्ति होती है वहाँ ये कोशा उसी प्रकार विह्रास को प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि वातनाड़ी कोशा। जो व्यक्ति तीव्र संन्यास ( acute coma ) से मरता है उसके अल्पचेतालोमश्लेप में प्रायः तीव्र सूजन ( actue swelling ) पाई गई है। कोशा की काया सूज जाती है, पाण्डर हो जाती है, रसधानीयुक्त( vacuolated ) हो जाती है। उसके प्रवर्ध टूट-टूट कर कणिका बन जाते हैं जब कि नाडीश्लेष और अणुश्लेप पर कोई प्रभाव नहीं होता जो इस बात का प्रमाण है कि अल्पचेतालोमश्लेष तीनों में सब से अधिक हृष ( sensitive) होता है। अणुश्लेष—यह कजाल का तृतीय द्रव्य' ( third element ) है। इसकी उत्पत्ति मध्यस्तर से होती है। इसके कोशा छोटे छोटे होते हैं । प्रत्येक में से कई कई प्रवर्ध निकलते हैं इन प्रवों पर समकोण पर चिपके सूक्ष्म शल्य (spines ) होते हैं। कोशा की काया और प्रवों को रजतप्राङ्गारीय विधि से अभिरंजित किया जा सकता है। इसमें न तो तन्तु होते हैं और न वाहिनीय पादपट्ट ही । ये कोशा धूसर पदार्थ में श्वेत पदार्थ की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं इनमें से कुछ तो नाडीकन्दाणुओं या चेतैकों के उपग्रह ( satellites ) बन जाते हैं पर ये उपग्रह अधिकतर अल्पचेतालोमश्लेषकोशाओं के होते हैं। दोनों श्लेषों की अपेक्षा पीडा या मृत्यु का अणुश्लेषकोशाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जन्म के समय अन्य दो श्लेषों की अपेक्षा ये बहुत कम संख्या में होते हैं परन्तु कुछ सप्ताह बीतते बीतते इनकी संख्या पर्याप्त हो जाती है जिसका कारण एक विचित्र प्रव्रजन ( migration ) है। यह प्रव्रजन २ स्रोतों से होता है। इनमें पहला स्रोत तो वह ऊति है जो मस्तिष्क निलयों का आस्तरण करने वाली कला ( ependyma ) के नीचे रहती है उस स्थान पर जहां मृदुतानिका अन्तर्वलित ( invaginated ) होकर झल्लरी प्रतान ( choroid plexus) बनती है । और दूसरा स्रोत प्रमस्तिष्क वृन्तों (cerebral peduncles) के नीचे के धरातल पर स्थित मृदुतानिका का भाग है। ऐसा लगता है कि ये कोशा मृदुतानिका से उत्पन्न होते हैं। सर्वप्रथम वे श्वेत पदार्थ में पाये जाते हैं और बाद में धूसर पदार्थ में भी चले जाते हैं । इन कोशाओं का कार्य भक्षिकोशीय (phagocytic ) मालूम पड़ता है। यह कोशा भक्षिकोशीय तथा कामरूपीय ( amoeboid ) होता है। जब कभी मस्तिष्क में विद्रधि हो जाती है तो ये कोशा सूज जाते हैं और वे गोल हो जाते हैं उनके प्रवर्ध मोटे पड़ जाते हैं तथा वे अन्दर की ओर खिंच जाते हैं और कोशा काया में मेद भर जाता है । २४ से ४८ घण्टे के भीतर ही यह अणुश्लेषकोशा एक पूरा और वास्तविक संयुत सकण कोशा ( compound granular corpuscle ) या स्वच्छक कोशा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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