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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० विकृतिविज्ञान रक्तवहाओं में प्रविष्ट होकर रक्तधारा द्वारा अनेक दिशाओं में फैला दिये जाते हैं जिसके कारण एक सामान्यित रोगाणुरक्तता (generalized septicaemia ) उत्पन्न हो जाती है जो रोगी को शीघ्र मार लेती है। जब रोग कम घातक होता है तो एक पतला पूयीय रक्तरंजित स्राव भी प्रगट होता है जिसमें असंख्य मालागोलाणु भरे होते हैं। उनके कारण पूयरक्तता या तीव्र रोगाण्विकहृदन्तःपाक हो जाता है जिसके कारण मृत्यु अवश्यम्भावी हो जाती है । इस रोग का एक दूसरा परिणाम तब होता है जब या तो गर्भाशयप्राचीर को भेदकर या बीजवाहिनी में होकर अथवा लसवहाओं के द्वारा उपसर्ग उदरच्छदकला तक पहुँच कर उसमें पाक प्रारम्भ करके मृत्यु का कारण बनता है । इसी रोग में यदि गर्भाशय की सिराओं का अवलोकन किया जावे तो उनमें रक्त के आतंच मिलते हैं जिन्हें बड़ी सरलता से तोड़ा जा सकता है वे जब रक्तधारा द्वारा जाते हैं तो फुफ्फुस में ऋणास्रण (infarction) कर देते हैं। दुष्टियुक्त (septic) अनेक ऋणात्र शरीर के विभिन्न अंगों में मिलते हुए देखे जाते हैं यहाँ तक कि अधिवृक्कों ( adrenals ) तथा पोषणिकाग्रन्थि ( pituitary gland ) में भी वे देखे गये हैं। आगे चल कर यदि रोगी बच गया तो अवशिष्ट ( residual ) जीर्ण गर्भाशयान्तःपाक या जीर्ण गर्भाशयपेशीपाक अथवा दोनों ही उसमें तीव्रावस्था के उपरान्त होते हुए देखे जाते हैं। ___ इस रोग में घनास्रसिरापाक ( thrombo phlebitis) नामक उपद्रव प्रायशः मिलता है : इसमें सिराओं में घनास्रोत्कर्ष हो जाता है। स्त्रियों में प्रसवोपरान्त और्वी सिरा तक जब यह घनास्रोत्कर्ष हो जाता है तो उसे श्वेतपाद ( white leg or phlegmasia alba dolens ) नामक रोग हो जाता है। सिरा में घनास्र होने से पैर का रक्त आगे बढ़ता नहीं जिसके कारण पैर में बहुत सूजन आजाती है। इस रोग के कारण बहुत ही कम पैर का कोथ देखा जाता है। इन घनास्रों से अन्तःशल्य बनकर फुफ्फुस में अन्तःशल्यता ( embolism ) कर दे सकते हैं जो तत्काल प्राण हर लेती है। यह फौफ्फुसिक अन्तःशल्यता प्रायः प्रसव के दशम दिवस पर या उसके पश्चात् देखी जाती है । प्रसव के पश्चात् थोड़ा हलका ज्वर आता है और रुग्णा कालकवलित हो जाती है। जब ऐसे रोगियों की मृत्यूत्तर परीक्षा की गई है तो उसकी गर्भाशयिक सिराओं में दृढ़ आतंच मिले हैं। श्रोणि की ऊतियों में प्रसवकालीन दूषकता के कारण स्थान-स्थान पर विद्रधियाँ बनती हुई देखी जाया करती हैं। ये विद्रधियाँ गर्भाशय प्राचीर, परागर्भाशयऊति, योनिगुदान्तरीय स्थालीपुट (pouch of Douglas) तथा बीजवाहिनियों में बनती हैं। कभी कभी गर्भपात कराने वाले स्त्रियों की योनि में शस्त्रादि उपकरणों का प्रयोग कर गर्भ गिरा देते हैं तथा स्त्री के कोमल अंगों में शस्त्रादि के कारण उपसर्ग का प्रवेश हो जाता है। कभी कभी तो कोमल गर्भाशय को चीर कर कोई शस्त्र उदरच्छद कलापाक कर मृत्यु कर देता है । केवल मात्र उपसर्ग का यथोचित उपचार न किया गया तो ५० प्रतिशत स्त्रियाँ कालकवलित हो जाती हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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