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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १६३ उष्णवातीय अधिवृषणिकापाक के अतिरिक्त अन्यजीवाणुओं से होने वाले पाक में समीपस्थ ऊतियों तक उपसर्ग पहुँच कर विद्रधि उत्पन्न कर सकता है। उसमें से तीन व्रण पाक के लक्षण यदा कदा उठ पड़ते हैं। यहाँ तीव्रावस्था बहुत काल तक रहती है न कि उष्णवातोपसर्ग की भाँति शीघ्र समाप्त होती हो यहाँ भी पुच्छ से ही रोगोत्पत्ति होती है तथा उपशम तन्तूत्कर्ष प्रधान होता है । स्त्रीप्रजननाङ्गों पर व्रणशोथ का परिणाम बीजकोषपाक ( Oophoritis) बीजकोषों ( ovaries ) में उपसर्ग २ मार्गों से पहुँचता है एक तो रक्तधारा द्वारा जो कर्णमूलिक ज्वर, पूयरक्तता तथा मन्थर ज्वर में देखा जाता है और दूसरा बीजवाहिनी ( uterine or fallopian tube) द्वारा जो प्रसूतिज्वरकारी तथा उष्णवातीय उपसर्गों में देखा जाता है । तीव्र बीजकोषपाक में बीजकोषप्रवृद्ध रक्तवर्णीय और शोथयुक्त हो जाता है उनके भीतर नीलोहांकित रक्तस्राव होते हुए देखे जाते हैं। यदि उनमें पूयन होता है तो पूय के पीत विन्दु या पीत रेखाएँ इतस्ततः बिखरी हुई देखी जा सकती हैं। कभी कभी किसी आध्मात स्यूनिका ( distended follicle ), पीतपिण्ड ( corpus luteum ) या पीत कोष्ठ ( latein cyst ) उपस्रष्ट हो जाता है जिसके कारण बीजकोष में विद्रधिभवन हो जाता है परन्तु ऐसी विद्रधि सदैव सीमित होती है। पर जब बीजवाहिनी द्वारा उपसर्ग जाता है तो कभी कभी इतनी अधिक वीजवाहिनी में पूयोत्पत्ति होती है कि वह पूयकोष (pyovarium) ही बन जाता है। बीजकोष और वाहिनी दोनों एक दूसरे से इतने सट जाते हैं कि बीजकोषवाहिन्यविधि ( tubo-ovarian abscess ) ही उस विद्रधि का नाम हो जाता है। ऐसी विद्रधियाँ उदरच्छदगुहा (peritoneal cavity )में आकर फटती हैं और सामान्य उदरच्छद कलापाक का कारण बनती हैं। वे कभी कभी बस्ति में या गुद में या उदर की अग्र प्राचीर में भी फट सकती हैं। जीर्ण बीजकोषपाक तीव्र या अनुतीव्र व्रणशोथ के परिणामस्वरूप हुआ करता है और उसमें बीजकोष में तान्तव व्रणवस्तु का निर्माण होने लगता है। बीजकोषों का कुछ आकार बढ़ जाता है और उसका धरातल गाँठ-गठीला हो जाया करता है। यह अवस्था उतनी नहीं आती जितनी कि जीर्ण परिबीजकोषपाक (perioophoritis) की देखी जाती है। उसमें व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया उपरिष्ठ होती है तथा बीजकोष बीजवाहिनी, श्रोणिप्राचीर या पक्षबन्धनी स्नायु ( broad ligament ) से तान्तव अभिलग्नों के द्वारा बँध जाता है। बहुधा व्रणशोथात्मक परिवर्तन इस रोग में बहुत कम मिलते हैं और इसी कारण यह भी विचार उठता है कि जो तन्तूत्कर्ष यहाँ होता है वह व्रणशोथात्मक है या विहासात्मक ( due to involution ) जैसा कि जीर्ण अन्तः गर्भाशयपाक या जीर्ण स्तनपाक में देखा जाता है। बीजकोषों में कितने ही For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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