SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२ विकृतिविज्ञान कर्णमूलग्रन्थिपाक ( mumps ) के साथ जब वृषणपाक होता है उस समय वृषणग्रन्थि में शूल होता है वह फूल जाती है परन्तु उसमें पूयोत्पत्ति नहीं होती। उसमें लसीकोशाओं की भरमार हो जाती है जिसके उपरान्त तन्तूत्कर्ष होकर अपोषतय हो जाता है जो वन्ध्यात्व वा क्लैब्य ( sterility ) का कारण बनता है। यह रोग प्रायः एक ग्रन्थि में होता है न कि दोनों वृषणग्रन्थियों में इस कारण पूर्णतः क्लैब्य नहीं मिलता। तरुणों में कर्णमूलग्रन्थिपाक के साथ वृषणपाक मिलता है परन्तु शिशुओं या बालों में वह उतना नहीं मिलता। वृषणपाक भूमध्यसागरीय ज्वर ( undulant fever ) अथवा आन्त्रिक ज्वर (typhoid fever ) के साथ साथ भी उपद्रवस्वरूप देखा जा सकता है। फिरंग के कारण होने वाले वृषणपाक का वर्णन फिरंग प्रकरण में होगा। अधिवृषणिकापाक ( Epdidymitis) अधिवृषणिका में, उष्णवातीय गोलाणु (gonococci ), पूयजनक गोलाणु (pyogenic cocci ) अथवा आन्त्रदण्डाणु (B. coli ) के द्वारा व्रणशोथ हो सकता है। ये तीनों या तो पश्चमूत्रमार्ग द्वारा यहाँ तक पहुँचते हैं या रक्तधारा उन्हें यहाँ ला पटकती है। इन तीनों में उष्णवातीय गोलाणुओं द्वारा उत्पन्न अधिवृषणिका पाक बहुत अधिक देखा जाता है। इसी का वर्णन हम आगे करते हैं। किसी व्यक्ति को जब उष्णवातीय उपसर्ग लग जाता है तब उसके २-२॥ मास पश्चात् अधिवृषणिकाओं में पाक प्रारम्भ होता है यह पाक सदैव पूयारमक होता है। उष्णवातीय अधिवृषणिका पाक की तीव्रावस्था एक या दो सप्ताह तक रहती है। सर्वप्रथम उसकी पुच्छ (globus minor ) प्रभावित होती है। वृषण सूज जाते हैं उनमें शूल होने लगता है परन्तु जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है वृषणग्रन्थियाँ उससे अप्रभावित रहती हैं। शुक्रवाहिनियों ( vasa deferens ) के अधिच्छद को बहुत हानि पहुँचती है इसके कारण रोगशमन व्रणवस्तूत्पत्ति के साथ होता है, व्रणवस्तु के संकोच करने पर उनके सुषिरक मुड़ जाते हैं जिसके कारण रेतोवहन में गड़बड़ हो जाती है और परिणामस्वरूप क्लैब्य हो सकता है। परन्तु यह उपसर्ग भी एकपार्श्विक (unilateral ) होता है जिसके कारण पूर्ण क्लैब्य नहीं हो पाता। पूयोत्पत्ति शुक्रवाहिनियों तक ही सीमित रहती है और समीपस्थ ऊतियों में नहीं फैलती जिसके कारण इतस्ततः बहुन्यष्टिकोशाओं का समूहन हो जाता है पर कोई निश्चित विधि नहीं बनती। तीव्रावस्था व्यतीत होने पर जीर्णावस्था प्रारम्भ होती है जो वर्षों रहती है। तन्तूत्कर्ष इस अवस्था का प्रधान लक्षण है जिसके कारण उति का शनैः शनैः क्रमिक विहास होता रहता है। यदि साथ में अण्डधरपुटक ( tunica vaginalis ) का प्रक्षोभ होता रहता है तो व्रणशोथात्मक मूत्रजवृद्धि या मुष्कवृद्धि ( hydrocele ) हो सकती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy