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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० . विकृतिविज्ञान से हम उसी का वर्णन इधर दे रहे हैं। यह स्त्रीसंसर्ग से प्राप्त रोग है। इसका प्रभाव पुरुषमूत्रमार्ग पर जितना अधिक पड़ता है उतना स्त्रीमूत्रमार्ग पर नहीं पड़ता।। पुरुष में मेढ़ीय मूत्रनाल ( penile urethra) के अग्र भाग की श्लेष्मलकला पर सपूय व्रणशोथ का परिणाम २-३ दिन पश्चात् प्रकट होता है। उसकी श्लेष्मलप्रन्थियों में सर्वप्रथम उपसर्ग पहुँचता है वहाँ से फिर धीरे धीरे उपसर्ग पश्चमूत्रनाल ( posterior urethra ) को जाता है। श्लेष्मलकला में विशल्कन ( desquamation ) और व्रणन (ulceration) के कारण पूयीय स्राव होता है। प्रायः रोग श्लेष्मल और उपश्लेष्मल स्तर तक ही रहता है पर गम्भीर अवस्थाओं में यह मेढ़काय ( corpora cavernosa) तक पहुँच जाता है । जब उपसर्ग पश्चमूत्रनाल तक चला जाता है तो फिर वहाँ पर खुलने वाली ग्रन्थियों (जैसे शिश्नमूल पार्श्विकग्रन्थियाँ Cowper's gland तथा पुरःस्थ ग्रन्थि में भी पहुँच जाता है। वहाँ से शुक्रप्रपिका ( seminal vesicles ) तथा अधिवृषणिका ( epididymis) को भी पहुंच सकता है। यदि उसका सम्बन्ध रक्तधारा से स्थापित हो गया तो वह रक्त में पहुँच कर रोगाणुरक्तता, उष्णवातिक हृदन्तःपाक, उष्णवातिक मस्तिष्कच्छदपाक (gonococcal meningitis), उष्णवातिक सन्धिपाक (gonococcal arthritis ) आदि हो सकते हैं पर वे सब मूत्रमार्गपाक की तीव्रावस्था शान्त होने के उपरान्त ही प्रकट होते हैं। उष्णवात की तीव्रावस्था जीर्णावस्था को अतिशीघ्र जाने की प्रवृत्ति रखती है। कभी कभी तो सुजाक २-३ सप्ताह में समाप्त हो जाती है। परन्तु उसके पश्चात् पश्चमूत्रनालपाक या पुरःस्थग्रन्थिपाक या अधिवृषणिकापाक का प्रारम्भ हो जाता है । जीर्णमूत्रनालपाक में मूत्रनालप्राचीर का शनैः शनैः विनाश होता चलता है और उसका स्थान कणन ऊति तथा व्रणशोथकारी तन्तूत्कर्ष लेने लगता है। आगे चलकर जब तान्तव ऊति संकुचित हो जाती है तो मूत्रनाल संकोच (urethral stricture) हो जाता है । यह मूत्रनाल के कलामय भाग ( membranous part ) में होता है जहाँ अग्र और पश्च मूत्रनाल मिलते हैं। इसके कारण मूत्रनाल का सुपिरक बहुत सिकुड़ जाता है अगर ऐसे स्थान पर कोई उपकरण डाला गया तो वह बजाय इस सुषिरक में होकर जाने के एक अन्य ही छिद्र बना डालता है। मूत्रनाल संकोच के कारण बस्ति में से मूत्र का प्रवाह अधिक द्रुत नहीं हो पाता। बस्ति को अधिक बलपूर्वक मूत्र को नीचे ढकेलना पड़ता है जिसके कारण उसकी प्राचीरें परमपुष्ट हो जाती हैं और उसमें इतस्ततः गर्तिकाएँ ( sacculi ) बन जाती हैं । यद्यपि बस्तिद्वारा मूत्र बाहर निकाल दिया जाता है इस कारण बस्ति में उपसर्गकारी जीवाणुओं का अधिकार वैसा नहीं जम पाता जैसा कि पुरःस्थग्रन्थि (prostate) की वृद्धि के कारण संकुचित मूत्रनाल के कारण। आगे चलकर ऊर्ध्व मूत्रमार्ग में भी विस्फारण होता है जिसके कारण उदवृक्कोत्कर्ष ( hydronephrosis), वृक्कक्रिया में अवरोध तथा मिहरक्तता भी हो सकती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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