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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १५५ (१) वृक्कमुखवृक्कपाक १. इसमें वृक्क-जीवितक ( renal parenchyma ) तथा वृक्कमुख ( pelvis of the kidney ) दोनों का एक साथ पूयन होता है। इस रोग में उपसर्ग रक्त की धारा से प्रवाहित होकर ही पहुँचता है और उसका मुख्य कारण आन्त्रदण्डाणु ( bacterium coli) मालूम पड़ता है आन्त्रपूयकारी जीवाणु इसमें बहुत कम भाग लेते हुए देखे जाते हैं। २. इस रोग के विक्षत सर्वप्रथम वृक्कमज्जक में बनते हैं जब कि पूयकारी जीवाणुओं के विक्षत पहले बाह्यक में बनते हैं। ३. इस रोग के आक्रमण के पूर्व सदैव आन्त्रपाक ( enteritis) का इतिहास मिलता है जहाँ से कि आन्त्रदण्डाणु इस मार्ग में पहुँचते हैं। ४. मूत्रोत्सर्ग में बाधा पहुँचाना, यह वृक्क के उपस्रष्ट होने का सर्वप्रथम प्रमाण होता है। यह बाधा किसी वृक्काश्मरी द्वारा भी पड़ सकती है परन्तु अश्मरियों के साथ सदैव ही सपूय उपद्रव होना आवश्यक नहीं है। ५. उपसर्ग का प्रारम्भ मज्जक की संचायी नालिकाओं (collecting tubules) में होता है (न कि बाह्यक में जैसा कि पूयरक्तता में देखा जाता है ) जहाँ से ऊपर बाह्यक की ओर तथा नीचे वृक्कद्वार की ओर उपसर्ग जाता है। बाह्यक में छोटे छोटे उठे हुए आपीत फोडे देखे जाते हैं या लाल रंग के सिध्म मिलते हैं जिनमें पीतवर्ण का पूय भरा हुआ स्पष्ट दिखता है जिसे देखकर ऋणास्र (infarct) का आभास होता है। ६. वृक्क का कटा हुआ धरातल देखने से यह लगता है कि मज्जक में जहाँ उपसर्ग की नाभि है वहाँ से बाह्यक की ओर पीतवर्ण की रेखाएँ चलती हैं जिनके बीच बीच में लाल वाहिनियाँ देखी जाती हैं। ___७. यदि बाह्यकीय विद्रधियाँ विदीर्ण हो जाती हैं तो उपसर्ग परिवृक्क ( perirenal ) भाग में भी पहुँच जाता है और परिवृक्क विद्रधि (perirenal abscess) बन सकता है। इसका प्रारम्भ सहसा होता है, जिसके साथ तीव्र पृष्ठशूल होता है और मूत्र में थोड़ा पूय मिलता है। संवर्ध के द्वारा उपसर्गकारी जीवाणु का पता लगाया जा सकता है। ८. वृक से पूय निकल कर वृक्कमुख में आता है जो स्वयं उपस्रष्ट होकर पूयोत्पत्ति कर सकता है यहाँ से वह नीचे के मूत्रमार्गों को जाता है जो कि उसके प्रभाव में आ सकते हैं। इस प्रकार यह एक मूत्रमार्ग का अवरोही उपसर्ग ( descending infection of the urinary tract ) हो जाता है। इस कारण गवीनीपाक ( ureteritis ) भी देखा जा सकता है तथा उससे भी अधिक सपूय बस्तिपाक ( suppurative cystitis ) मिलता है। ९. आन्त्रदण्डाणुजन्य इस पाक में मूत्र की प्रतिक्रिया आम्लिक होती है, पूयउपस्थिति से वह गंदला या मेघाभ हो जाता है, उसमें कुछ विति मिल सकती है For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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