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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १४७ शोथात्मक शोथों की ओर ले जाते हैं न कि सच्चे वृक्कपाकजन्य शोथ की ओर । शोथ द्रव में प्रोभूजिन की मात्रा १ प्रतिशत तक होती है जब कि वृक्कपाकजन्य शोथ-द्रव में वह ०.१ प्रतिशत ही मिलती है यद्यपि शोफ बहुत कम होता है। तो अनुतीव्र वृक्कपाक में (१) घनीभूत शोफ मिलता है, (२) रक्तरस की प्रोभूजिनों की मात्रा में कमी मिलती है जिसका कारण वितिमूत्रता होती है, (३) ऊतियों में क्षारातु प्रतिधारण (sodium retention) हुआ रहता है तथा (४) रक्तीय पैत्तव उच्च ( raised ) मिलता है। ये चार प्रमुख लक्षण मिलते हैं। किस प्रकार केशाल प्राचीरों की दुर्बलता और विशोणता से रक्त की प्रोभूजिनें निकल कर मूत्र में मिल जाती है इसे हम पहले कह चुके हैं। परन्तु उसके कारण अनुतीव्र वृकपाकीय सर्वांग शोथ कैसे होता है उसे हम अब संक्षेप में कहना चाहते हैं । जो श्विति (एल्बूमिन) मूत्र द्वारा निर्गत होता है वह रक्तरस (Plasma ) से आता है। रक्तरस में से इतनी विति बाहर जाती है कि उसकी मात्रा केवल ५० प्रतिशत रह जाती है। २४ घण्टे में लगभग २० माषा ( 20 grams) विति शरीर से बाहर चली जाती है। रक्त में साधारणतः दो प्रोभूजिने प्रायशः मिलती हैं एक विति और दूसरी वर्तुलि (globulin)। श्विति का व्यूहाणुभार वर्तलि से कम होता है जिसके कारण श्विति वर्तुलि की अपेक्षा अधिक श्लेषाभ आसृतीय निपीड ( colloid osmotic pressure ) उत्पन्न करती है। श्चिति और वर्तुलि का अनुपात रक्त में ३: १ का रहता है। परन्तु यतः मूत्र द्वारा श्विति का अधिक निकास होता है इस कारण आसृतीय निपीड़ भी कम हो जाता है। इस रोग में दोनों का अनुपात १:३ (बिल्कुल उलटा) हो जाता है। आसृतीय निपीड की कमी का अर्थ होता है जल का शरीर में संचय । इस जल में श्विति या वर्तुलि का अभाव रहता है केवल ०.०३ से ०.०५ प्रतिशत प्रोभूजिने इस शोथ-द्रव में मिलती हैं। ज्यों-ज्यों श्विति शरीर से अधिक निकलती है त्यों-त्यों शोथ बढ़ता और जल का संचय होता चलता है । यद्यपि रोगी देखने में फूला हुआ मिलता है परन्तु स्विति की कमी उसके बल की कमी करके उसे दुर्बल कर देती है। शरीर की ऊतियों में जल भर जाने से, महास्रोतीय भाग में विशेष करके जल का भार पड़ने से तथा वृक्क में इस जल को निकालने का सामर्थ्य न रहने से वमन और अतीसार भी प्रारम्भ हो जाते हैं। क्षारातु(सोडियम) का प्रतिधारण भी महत्त्वपूर्ण है जिसके सम्बन्ध में कुछ अधिक जानकारी सदैव लाभदायक रह सकती है। मूत्र में लवण या क्षारातुनीरेय (sodiumchloride) की कमी इस रोग में देखी जाती है। यदि अधिक जलसंचय शरीर में होगा तो लवण भी कम निकलेगा और कम होगा तो वह अधिक निकलेगा ऐसा प्रायः देखा जाता है। कुछ लोग ऐसा समझ सकते हैं कि लवण प्रतिधारण ही शोथ या जल संचय का हेतु है जो सर्वथा गलत है। उन्हें यह समझना चाहिए कि जलसंचय के . परिणामस्वरूप लवण या तारातु प्रतिधारण होता है। क्योंकि लवण का प्रतिधारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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