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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ विकृतिविज्ञान भी इधर आ जाते हैं। आगे चलकर गुच्छकेशालों के अन्तश्छद में प्रगुणन ( proli feration) होने लगता है। यह प्रगुणन जितना इन केशालों में देखा जाता है उतना अन्यत्र नहीं यद्यपि यह होता सब व्रणशोथाक्रान्त केशालों में है। उसके बाद केशाल प्राचीर से अन्तश्छदीय स्तर में होकर सुषिरक ( lumen )की ओर बढ़ने वाले तन्तुओं (fibrils) में भी प्रगुणन होने लगता है जिसके कारण पहले से संकुचित सुषिरक और अधिक होने लगते हैं। इसके कारण धीरे धीरे इन जूटकेशालों में होकर रक्त का आवागमन बन्द हो जाता है और रक्ताधिक्य की अवस्था से ये गुच्छ लगभग रक्तविरहित अवस्था तक पहुंच जाते हैं । यदि रक्त का यह अवरोध जूटों में बहुत अधिक हुआ तो नालिकाओं को रक्त का पहुँचना कठिन हो जाता है जिसके कारण सम्पूर्ण वृक्काणु विशोणता ( ischaemia) से पीडित हो जाता है। जूटों की अपेक्षा नालिकाओं में तीव्रावस्था के लक्षण कुछ भिन्न होते हैं। उनमें मेघसम शोथ प्रायः मिलता है या आगे चलकर इनका विनाश हो जाता है उनमें से लाल रक्तकणों का च्याव भी हो जाता है जो उनके सुषिरकों में प्रायः देखे जा सकते हैं। तीवावस्था के पश्चात् धीरे धीरे अनुतीवावस्था आती है जिसे विह्रासावस्था ( degenerative stage ) भी कहा जाता है। इसमें जूटों में उतना अधिक परिवर्तन प्रारम्भ में नहीं मिलता जितना कि नालिकाओं में देखा जाता है। उसके २ कारण है-एक विशोणता और दूसरा विषाक्तता ( toxic poisoning )। आदिप्रावर के ऊपर अधिच्छद फूल जाता है और जूट के ऊपर एक कोष ( sheath) छा जाता है जिसे अधिच्छदीय अर्द्धचन्द्र (epithelial crescent ) कहते हैं। जूट आदिपावर की प्राचीर से चिपक जाता है जिसका कारण उसके ऊपर के अधिच्छदीय कोशाओं की मृत्यु माना जाता है । नालिकीय अधिच्छद में स्नैहिक और विमेदाभ कोषाओं की भरमार, सिध्मिक मृत्यु (patchy necrosis) तथा विशल्कन ( desquamation ) मिलते हैं अधिक गम्भीर अवस्था में कोशाओं का कोशारस (cytoplasm) खाली हो जाता है जिसे काचरविन्दु विहास ( hyalime droplet degeneration ) कहते हैं पर जहाँ तक अवस्था सौम्य रहती है विमेदाभ भरमार ही देखी जाती है । रक्त के लालकण, सितकोशा और तन्विमत् जालक ये सभी नालिका सुषिरक में मिलकर कणात्मक निर्मोक (granular casts ) बनाते हैं। अनुतीव्रावस्था की अन्तिम अवस्था में जूटिकीय केशालपाशों के परमचयिक अधिच्छदीय कोशाओं में काचरविह्रास होने लगता है तथा आदिप्रावर की अधिस्तृत कला ( basement membrane of the Bowman's capsule ) में भी काचरविहास प्रारम्भ हो जाता है। उसके पश्चात् रोग की जीर्णावस्था प्रारम्भ हो जाती है । इस जीर्णावस्था में आहत वृक्काणु जूटों का काचरीकरण इतना हो जाता है कि वे पूर्णतः अभिलुप्त हो जाते हैं उनकी रचना पूर्णतः नष्ट हो जाती है और उनसे अभिलग्न नालिकाओं में विशोणिक मृत्यु के परिणामस्वरूप तान्तव ऊति बन जाती है। इस प्रकार उस रोग में सम्पूर्ण वृक्काणु विनष्ट हो जाता है। जो वृक्काणु बच For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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