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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ विकृतिविज्ञान उनसे रक्त चूने या टपकने लगता है । इसके परिणाम स्वरूप आमाशय में रक्त भरने से रक्तवमन तथा आन्त्र से रक्त जाने पर रक्तातीसार तथा मल के साथ जीवरक्त आता हुआ देखा जाता है । यह ऊर्ध्वग या अधोग रक्तपित्त बहुखण्डीय यकृद्दाल्स्कर्ष का एक महत्त्व का लक्षण है । यदि रक्तपित्त की सम्प्राप्ति बताने के लिए जो आयुर्वेदीय श्लोक आये हैं उन पर थोड़ा यहीं दृष्टिपात कर लें तो हमें उनके यथार्थ भाव जानने में सुविधा मिलेगी पित्तं विदग्धं स्वगुणैविंदहत्याशु शोणितम् । ततः प्रवर्तते रक्तमूर्ध्वं चाधो द्विधाऽपि वा ॥ ( सुश्रुत उत्तरतन्त्र ) कुपितं पित्तलैः पित्तं द्रवं रक्तं च मूच्छिते । ते मिथस्तुल्यरूपत्वमागम्य व्याप्नुतस्तनुम् ॥ पित्तं रक्तस्य विकृतेः संसर्गादूदूषणादपि । गन्धवर्णानुवृत्तेश्च रक्तेन व्यपदिश्यते ॥ प्रभवत्यसृजः स्थानात्प्लीहतो यकृतश्च तत् । ( अष्टाङ्गहृदय नि० स्था० ) इस महास्रोतक निश्रेष्ट रक्ताधिक्य का दूसरा महत्त्व का परिणाम होता है जलोदर ( ascites )। इसमें उदरच्छद कला में बहुत बड़ी मात्रा में जल भर जाता है जिसके साथ साथ कभी कभी जीर्णस्वरूप का उदरच्छदकला पाक भी मिल सकता है । जलोदर सम्प्राप्ति के निम्न सूत्रों का पारायण कुछ लाभदायक हो सकेगा - यः स्नेहपीतोऽप्यनुवासितो वा वान्तो विरिक्तोऽप्यथवा निरूढः । पिबेज्जलं शीतलमाशु तस्य स्रोतांसि दूष्यन्ति हि तद्वहानि ॥ स्नेहोपलिप्तेष्वथवाऽपि तेषु दकोदरं पूर्ववदभ्युपैति । स्निग्धं महत्तत्परिवृत्तनाभि समाततं पूर्णमिवाम्बुना च । यथा दृतिः क्षुभ्यति कम्पते च शब्दायते चापि दकोदरं तत् ॥ ( सुश्रुत नि० स्था० ) प्रवृत्तस्नेहपानादेः सहसामाऽऽम्बुपायिनः । अत्यम्बु पानान्मन्दाग्नेः क्षीणस्यातिकृशस्य वा ॥ रुद्ध्वाऽम्बुमार्गाननिलः कफश्च जलमूच्छितः । वर्धयेतां तदेवाम्बु तत्स्थानादुदराश्रितौ ॥ ततः स्यादुदरं तृष्णागुदस्रुतिरुजान्वितम् । कासश्वासारुचियुतं नानावर्णसिराततम् ॥ तोयपूर्ण दृति स्पर्शशब्दप्रक्षोभवेपथु । दकोदरं महत्स्निग्धं स्थिरमावृत्तनाभि तत् ॥ ( अष्टांगहृदय ) यकृदात्युदर, प्लीहोदरादि अनेक उदर रोग आगे चल कर जलोदर में परिणत होते हैं यह हम कई स्थानों पर पीछे तथा आगे पाश्चात्य दृष्टिकोण प्रकट करते हुए लिखेंगे । उसी के सम्बन्ध में वाग्भट का निम्न वक्तव्य कितना उपयोगी होगा यह समझ लेना आवश्यक है: : उपेक्षया च सर्वेषु दोषाः स्वस्थानतरच्युताः । पाकाद्रवा द्रवीकुर्युः सन्धिस्रोतोमुखान्यपि ॥ स्वेदश्च बाह्यस्रोतःसु विहतस्तिर्यगास्थितः । तदेवोदकमाप्याय्य पिच्छां कुर्यात्तदा भवेत् ॥ गुरूदरं स्थिरं वृत्तमाहृतं च न शब्दवत् । मृदु व्यपेतराजीकं नाभ्यां स्पृष्टं च सर्पति ॥ तदनूदकजन्मास्मिन्कुक्षिवृद्धिस्ततोऽधिकम् । सिरान्तर्धानमुदकजठरोक्तं च लक्षणम् ॥ ( अष्टांगहृदय निदानस्थान ) For Private and Personal Use Only जलोदर के साथ साथ प्रायः सौम्यरूप सिरापाक भी केशिका भाजिसिरा में रहता है जिसके कारण केशिकाभाजि, प्लैहिक या अधरान्त्रिकी सिराओं में से किसी में भी घनोस्त्रोत्कर्ष मिल सकता है ।
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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