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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव श्वसनिकाओं में श्लेष्मा भर जाने के कारण श्वसनकर्म में अवरोध विशेष होकर फुफ्फुसपाक होता है । निःश्वासजन्य कारण केवल मुख नासा और स्वरयन्त्र के शस्त्रकर्मों के कारण देखे जा सकते हैं । कभी कभी जब निश्चेतनावस्था ( anaesthetic state ) 1 कास प्रत्यावर्तन का अभाव पाया जाता है तो श्वासकर्म बहुत शिथिल होता है और श्वसनिकाएं श्लेष्मल स्राव से भर जाती हैं जिसके कारण फुफ्फुस में समवसादित सिध्म बन जाते हैं जिनमें धीरे धीरे रोगाणु बढ़ते रहते हैं जिनका बालकों और वृद्धों पर बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है । शस्त्रकर्मोत्तर काल में गाधश्वसन ( shallow breathing ) के कारण आने वाली इस विपत्ति से बचने के लिए हैंडरसन और हब्बर्ड ने यह बतलाया है कि प्रांगार द्विजारेय की अधिक मात्रा से युक्त वायु का श्वसन कराना चाहिए ताकि श्वसन गम्भीर हो तथा श्वासनाल श्लेष्मा से अवरुद्ध न हो जावे । ६७ तैलीय फुफ्फुसपाक (Lipoidal pneumonia) भी एक प्रकार का निःश्वास फुफ्फुसपाक है । लिक्विड पैराफीन का जब नासा में उपयोग होता है तो वहां से वह फुफ्फुस में चला जा सकता है। कभी कभी बच्चों को काडलिवर आइल देते समय वह निःश्वसित होकर फुफ्फुस में पहुँच जाता है वहाँ उसका जलांशन (hydrolysis) होता है और तैल साबुन में बदल कर फुफ्फुस में प्रक्षोभ करके व्रणशोथ कर देता है । क्ष-चित्र में तैल की छाया आ सकती है और रोगी जीर्णकास से पीडित देखा जाता है । उपस्थायीय फुफ्फुसपाक ( Hypostatic pneumonia ) भी एक प्रकार का खण्डिकी फुफ्फुसपाक होता है । वृद्धावस्था में रोगी को अस्थिभग्न या अन्य किसी कारण से अधिक काल तक पड़ा रहना पड़ता है तथा उसके दुर्बल हृदय के द्वारा रक्तसंवहन की क्रिया पूरी तौर पर न हो सकने से उसके फेफड़े अधिरक्तमय और सूजे हुए हो जाते हैं जिसके कारण उनमें अल्पघातकारी रोगाणुओं का उपसर्ग हो जाता है और खडक फुफ्फुसपाक भी उत्पन्न हो जाता है। इससे रोगी की मृत्यु अतिशीघ्र हो जाती है इस प्रकार के फुफ्फुसपाक के सब नैदानिक लक्षण जीवित रोगी में नहीं मिल पाते । मृत्यूत्तर परीक्षा में समवसादि फुफ्फुसऊति, अधिरक्तता तथा फुफ्फुसाधारों पर खण्डिकीय फुफ्फुसपाक आदि सब मिलते हैं । । विस्थायी फुफ्फुसपाक ( Metastatic pneumonia ) जब शरीर में किसी अन्य स्थान में कोई उपसर्ग हो जाता है और वह फिर रक्त के द्वारा फुफ्फुस में विस्थानान्तरण ( metstasis ) करता है तो फुफ्फुसों में स्थान स्थान पर पूति क्षेत्र बन जाते हैं और उपसर्गकारी अन्तःशल्य ( emboli ) फुफ्फुसपाक के कारण बनते हैं जगह जगह विद्रधियाँ बन जाती हैं और रोगी की शीघ्र मृत्यु हो जाती है I For Private and Personal Use Only आद्य अविशेष फुफ्फुसपाक ( Primary Atypical pneumonia ) इसे न्यूमोनाइटिस ( Pneumonitis ) भी कहते हैं। यह आधुनिक काल में ही प्रकाश में आया हुआ विषाणुजन्य रोग है । इसमें अन्य किसी जीवाणु की उपस्थिति न मिलने के कारण ही इसे विषाणुजन्य माना जाता है इसमें कोशाओं की प्रतिक्रिया भी अन्य ६. १० वि०
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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