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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान धूसर यकृतीभवनावस्था (grey hepatisation) कहा जाता है। यकृत् के समान ठोस और धूसर वर्ण का फुफ्फुस होना तृतीयावस्था का महत्त्व का लक्षण है। इससे आगे फुफ्फुस की जो दशा होती है वह फुफ्फुस का पूयन या पूयीय अन्तराभरण ( purulent infiltration ) कहलाता है। इस अवस्था में थूक पीला तथा पूययुक्त होता है। इसकी मात्रा पर्याप्त बढ़ जाती है और यह बहुत अबद्ध ( loose ) होता है । इस समय सभी फुफ्फुसगोलाणु आन्तरकोशीय (intracellular ) होते हैं। इन सभी अवस्थाओं में रोगी का तापांश पर्याप्त उच्च रहता है और स्थिर होता है। जब तृतीयावस्था की समाप्ति होती है उस समय भक्षकोशाओं द्वारा फुफ्फुसगोलाणुओं का भक्षण कर लिया जाता है इसी समय व्यंशियां भी उत्पन्न हो जाती हैं जिसके कारण सहसा बहुत बड़ी संख्या में उनका अंशन होने लगता है जिसके कारण बहुत अधिक मात्रा में अन्तर्विषि (endotoxin ) स्वतन्त्र होकर रक्त में मिल जाती हैं इसी कारण इस अवस्था में रोगी की मृत्यु देखी जाती है। मृत्यु का कारण यह होता है कि इस रोग में हृदय बहुत भ्रान्त और विषाक्त पहले से ही होता है जिस समय इन अन्तर्विषियों का बोझ उस पर पड़ता है तो वह सहन नहीं कर सकता और अपना कार्य बन्द करके मृत्यु का कारण बनता है। फुफ्फुसपाक की चतुर्थावस्था को उपशमावस्था ( stage of resolution ) कहते हैं । उपशम का विशेष विचार इस अध्याय के अन्तिम चरण में किया जावेगा परन्तु प्रसङ्गवश फुफ्फुसपाक में उपशम किस प्रकार होता है इसे हम पाठकों के सम्मुख उपस्थित कर रहे हैं ताकि अधिक असुविधा न रहे। उपशमावस्था का अर्थ है फुफ्फुस का अपने स्वाभाविक रूप में आ जाना तथा उपसर्गकारी जीवाणुओं का पूर्णतः विनाश । नैदानिक दृष्टि से उपशम का प्रारम्भ दारुण्य ( crisis ) से होता है जिसमें रोगी का तापांश एकदम गिरकर स्वाभाविक पर आता है जिसके साथ साथ सितकोशाओं की संख्या में भी हास होता है। पर यह हास तभी सम्भव है जब अन्य कोई उपद्रव साथ में न हो। उपशम और समङ्गीकरण ( organisation ) में अन्तर है। समङ्गीकरण में फुफ्फुस एक तान्तव ऊति का निकम्मा ढेर मात्र बन जाता है पर उपशम एक विशिष्ट प्रक्रिया है जिसका प्रारम्भ अतितीवावस्थाओं के तुरत बाद होता है पर जिसमें अंग अपने स्वाभाविक कार्य करने की अवस्था में आजाता है। पर यह भी आवश्यक नहीं कि सम्पूर्ण अंग का उपशम हो जाय, कुछ भागों में समंगीकरण भी देखा जा सकता है जिसका प्रमाण तन्तूत्कर्ष का मिलना है। उपशम वहीं सम्भव है जहां विष का प्रभाव कितना ही हो परन्तु फुफ्फुस अति का विनाश तथा फुफ्फुस की रक्तवाहिनियों को कम से कम क्षतिग्रस्त होना पड़े। खण्डीय फुफ्फुसपाक में फुफ्फुस का चाहे अधिक क्षेत्र प्रभावित हो जावे और चाहे कितना ही स्राव निकल निकल कर फुफ्फस के वायुकोशाओं को ठोस बना दे परन्तु For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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