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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव τε कुफ्फुस के वायु कोशाओं में रक्त के सितकोशाओं की भरमार होने लगती है जिसके कारण वायुकोशा पूर्णतः भर जाते हैं । सितकोशाओं की यह दूसरी लहर ( second wave ) है । वायुकोशाओं में तन्त्वि का प्रसार पहले ही से रहता है जिसकी जालिकाओं का वर्णन द्वितीयावस्था में किया जा चुका है । इस तन्वि जालिकाओं के परिणाह में पहले सितकोशाओं का जमघट होता है जहां से फिर वे और अन्दर की ओर गमन करते हैं । यदि इस अवस्था में यकृत् को काटा जाय तो वह कणात्मक तल जो द्वितीयावस्था में दृग्गोचर होता था नहीं मिलता अपि तु धरातल का वर्ण आपीत हो जाता है । सितकोशाओं के चारों ओर एक तरल वलय का निर्माण धीरे धीरे होने लगता है जिसका तात्पर्य यही है कि तन्त्वि जालिकाओं को तरल करने के लिए अभिपाचिक किण्व ( tryptic ferments ) ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है। धीरे धीरे जालिकाओं का पूर्णतः वियोजन हो जाता है और एक घुलनशील पदार्थ बन जाता है । यह पदार्थ कास के साथ बाहर बहुत कम आता है या बिल्कुल नहीं आता । इस समय यदि हम फुफ्फुस गोलाणुओं का विचार करें तो वे सितकोशाओं के उदर में समाये हुए मिलते हैं। अब इनका कोशाबाह्य स्वरूप न मिल कर आन्तर - कोशीय ( intracellular ) स्वरूप ही प्रकट होता है । बहुत थोड़े कोशा बाह्य भी मिल सकते हैं। पहली और दूसरी लहरों में बहुन्यष्टिसित कोशाओं का ही बाहुल्य रहता है । पर जब सितकोशाओं की तीसरी लहर आती है तो उसमें बहुन्यष्टि के स्थान पर एकन्यष्टि सितकोशा या जालिकान्तश्छदीय संस्थान के महाभक्ष ( macrophages of reticulo-endothelial system ) वायुकोशाओं में उतर आते हैं । यह तीसरी लहर ज्वर के दारुण्य ( crisis ) के समय प्रायशः देखी जाती है । ये महाभक्ष जितने चाव से फुफ्फुसगोलाणुओं का सफाया करते हैं उतने बहुन्यष्टि कोशा नहीं करते । यदि तृतीयावस्था अधिक काल तक रहती है तो वायुकोशाओं की प्राचीरें प्रायशः नष्ट भ्रष्ट हो जाती हैं । द्वितीयावस्था की अपेक्षा इस अवस्था में फुफ्फुस का भार, उसका घनत्व तथा उसकी भिदुरता ( friability ) अधिक बढ़ जाती है । ऊति अत्यन्त मृदु और गोदमय (pulpy ) हो जाती है । सबसे बड़ा परिवर्तन फुफ्फुस के वर्ण में हो जाता है पहले जो असित आरक्त बभ्रु ( dark reddish brown ) वर्ण का फुफ्फुस बतलाया गया था वह इस अवस्था में धूसर ( grey ) वर्ण का या आपीतश्वेत वर्ण का हो जाता है जिसके बीच बीच में रंगयुक्त योजक अति खचित रहती है । वर्ण परिवर्तन के निम्न ३ कारण हैं जो आंशिकरूप में इसके लिए उत्तरदायी हैं : १. द्वितीयावस्था में आये हुए रक्त के लाल कर्णो का शोणांशन ( haemolysis) २. सितकोशाओं का अत्यधिक संख्या में आगमन ३. व्रणशोथात्मक स्राव ( inflammatory exudate ) के द्वारा रक्तवाहिनियों पर इतना पीड़न डालना कि उनकी अधिरक्तता समाप्त हो जाय । फुफ्फुस के इस वर्ण परिवर्तन के आधार पर ही इस अवस्था को धूसरावस्था या For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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