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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ विकृतिविज्ञान नासागुहा नासाजवनिका के द्वारा २ भागों में विभक्त हो जाती है। प्रत्येक भाग का प्रारम्भ एक बाह्य नासाछिद्र से होता है उसके पश्चात् गुहा के ऊपर की छत, बाहर की ओर की प्राचीर, फर्श भूमि ( floor ), तथा पश्च नासाछिद्र होता है। वर्णन की सुविधा के लिए प्रत्येक भाग को ३ क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है जिसमें एक नासालिन्द ( nasal vestibule ) कहलाता है यह बायनासाछिद्र एकदम सटा हुआ होता है इसमें त्वचा बिछी रहती है जिस पर बाल उगते हैं। दूसरा क्षेत्र नासासुरङ्गातोरण ( nasal atriun ) कहलाता है। यह नासालिन्द से मध्यसुरंगा ( middle meatus ) तक रहता है। इसमें नासा श्लेष्मलकला बिछी रहती है। यहाँ नासागुहा पर्याप्त चौड़ी होती है तीसरा नासासुरंगाओं का क्षेत्र होता है। नासा में ४ सुरंगाएँ हैं पहली नासा अधोसुरंगा नासा भूमि एवं अधःशुक्तिका ( inferior conche) के बीच में होती है इस सुरंगा में नासाप्रणाली ( nasal duct ) खुलती है। दूसरी नासामध्यसुरंगा ( middle nasal meatus ) है जो अधः और मध्य शुक्तिका के बीच में रहती है। इसमें कई महत्त्वपूर्ण रचनाएं पाई जाती हैं जिनमें एक झर्झरीयस्फोट ( bulla ethmoidalis ) है जो मध्य शुक्तिका के ठीक नीचे फूला हुआ भाग है जो झझरास्थि के मध्यभाग में स्थित वायुकोशाओं के कारण बनता है इस स्फोट के सामने मुड़ा हुआ झरास्थि प्रवर्द्धन (uncinate process of the ethmoid bone ) होता है। स्फोट और प्रवर्द्धन के मध्य में एक अर्द्धचन्द्रापरिखा ( hiatus semilunaris ) होती है। यह परिखा ऊपर और आगे की ओर बढ़कर एक कूपिका ( infundibulum ) तक जाती है जहाँ या उसके समीप पुरश्नासास्रोत (fronto nasal sinus) खुलता है। इस परिखा के पिछले भाग में हनुगर्भकोटर ( maxillary antrun ) खुलता है। इसी परिखा में झझरास्थि के अग्र और मध्य वायु कोशा भी खुलते हैं। तीसरी नासा ऊर्ध्वसुरंगा यह मध्य और ऊर्ध्व शुक्तिकाओं के मध्य में होती है इसमें झर्झरास्थि के पश्च वायुकोशा खुलते हैं । चौथी जातूक झझरिकखात ( sphenoethmoidal recess ) कहलाती है इसमें जतुकास्थि के कोटर खुलते हैं। झर्झर पटल (cribriform plate ) के भाग को छोड़कर जहाँ घ्राणेन्द्रिय का अधिच्छद है तथा नासालिन्द के भाग को छोड़कर जहाँ त्वचा है शेष सम्पूर्ण परिखाओं या अन्य स्थानों में नासा की श्लेष्मलकला ही बिछी हुई है । यह कला रोमावृत ( ciliated ) है और उसका नीचे की पर्यस्थ से सीधा सम्बन्ध रहता है । यह उन सब प्रणालियों के साथ भी संतत रहती है जो नासागुहा से सम्बद्ध रहती हैं। वायु के कोशाओं और कोटरों में कला यद्यपि मृदु अधिक होती है एवं रोमावृत होती है पर उसका सम्बन्ध इससे अवश्य रहता है । अधःशुक्तिका तथा नासाजवनिका के निचले भाग में यह कला कुछ मोटी हो जाती है उसमें सिराजाल की भी अधिकता होती है उसके कारण वह उच्छीर्षक ऊति ( erectile tissue ) सदृश लगती है। नासाप्रणाली के कारण नासागुहा का सम्बन्ध अश्रुयन्त्र से सदैव बना रहता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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