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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव ६७ हृत्पेशीपाक ( acute toxic myocarditis) तथा दूसरा तीव्र जीवाण्वीय हृत्पेशी पाक (acute bacterial myocarditis)। तीव्र वैषिक हृत्पेशीपाक का दूसरा नाम जीवितक हृत्पेशीपाक (parenchymatous myocarditis) है। इसमें हृदय मोटा तथा भंगुर होता है। हृत्पेशी तन्तु सूजे, कणात्मक होते हैं। इन तन्तुओं में पहले मेघसम शोथ होता है फिर वे कणात्मक हो जाते हैं उनकी न्यष्टियाँ विषम एवं विकर्षित हो जाती हैं। हृत्पेशी की अनुव्यस्त रेखाएं मिट जाती हैं और सिध्मों के रूप में काचरीकरण पाया जाता है। ऐसा रोहिणी तथा आन्त्रिक ज्वर के कारण हुई व्याधियों में प्रायः देखा जाता है। आगे भक्षकायाणु प्रवेश करते हैं उन पर तन्तुरुह प्रगणन होता है जिसके ऊपर तन्तूत्कर्ष हो जाता है। तीव्र जीवाण्वीय हृत्पेशीपाक तो एक प्रकार का उसी रूप में अन्तरालित संयोजक ऊति का कोशोतिपाक ( cellulitis ) है जिस रूप में कि तीव्र सपूय ऐच्छिक पेशीपाक होता है । इस पाक के निम्न कारण होते हैं १. सार्वदैहिक पूयकर उपसर्ग ___२. सपूय परिहृत्पाक का विस्तार ३. जीवाण्वीय हृदन्तश्छद पाक जिसमें जीवाणु वलयधमनियों द्वारा पेशी तक पहंचते हैं, किसी भी कारण से यह हृत्पेशीपाक हो, व्रणशोथ की सम्पूर्ण प्रतिक्रिया यहाँ प्रगट होती है । सर्वप्रथम उपसृष्ट स्थान की रक्तवाहिनियाँ विस्फारित हो जाती हैं फिर वहाँ बहुन्यष्टि सितकोशाओं की भरमार हो जाती है फिर वहाँ उति-विहास होकर पेशी-तन्तुओं की मृत्यु हो जाती है। अर्थात् तीव्र सपूय व्रणशोथ में जो जो हो सकता है वही यहाँ भी मिलता है। ___ जीर्णहृत्पेशीपाक को तन्त्वाभहृत्पेशीपाक ( Fibroid myocarditis ) भी कहते हैं। इस रोग में तीव्र पाक का प्रमाण प्रायशः नहीं मिल पाता। स्थान स्थान पर हृत्पेशी में तान्तविक व्रणवस्तु के सिध्म बन जाते हैं शेष तन्तुओं में थोड़े कम या अधिक विहास के लक्षण मिलते हैं। उत्तरोत्तर पेशीनाश होकर तन्तूत्कर्ष में परिणति का चित्र इस व्याधि में विशेष करके देखा जाता है। हृत्प्राचीर स्थूल एवं कठोर हो जाती है। क्योंकि इस रोग में तीव्रावस्था के लक्षण नहीं मिलते इस कारण यह अवस्था किसी पूर्व में हुई व्याधि का अन्तिम उत्पाद मानी जा सकती है जिसके निम्न कारण दिये जाते हैं १. हृत्पेशीय फिरंग (वार्थिन इस पर विशेष जोर देता है) २. अज्ञातकारणजन्य प्रबल जारठ्य ( tonic sclerosis) ३. हृवलय-वाहिनियों में विशोणिक अपुष्टिजन्य जारठ्य ४. हृद्वलय-वाहिनियों का फिरंग द्वारा मुख सांकोच्य ५. आमवात, आन्त्रिकज्वर या अन्य जीवाणुओं या विषरक्तताओं के द्वारा ठीक हुए विक्षतों से भी यह देखा जा सकता है For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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