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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राप्तिविमर्श १०७१ पित्त और कफ दोनों अथवा अलग-अलग वायु के द्वारा जब संघनन को प्राप्त होते हैं तो मूत्र पीला, सफेद अथवा लाल तथा घनरूप में दाहपूर्वक गोरोचन या शंखचूर्ण रूप में शुष्क या समस्त वर्ण का हो जाता है । यही मूत्रसाद कहलाता है। ६४-मूत्रातीतचिरं धारयतो मूत्रं त्वरया न प्रवर्तते । मेहमानस्य मन्दं वा मूत्रातीतः स उच्यते ॥ ( सु. उ. तं.) देर तक रोका गया मूत्र जब त्यागने पर तुरत न निकलकर मन्द मन्द गति से गिरता है तो यह अवस्था मूत्रातीत कहलाती है। ६५-मूत्रोत्सङ्ग बस्तौ वाऽप्यथवा नाले मणौ वा यस्य देहिनः । मूत्रं प्रवृत्तं सज्जेत सरक्तं वा प्रवाहतः॥ स्रवेच्छनैरल्पमल्पं सरुजं वाऽथ नीरुजम् । विगुणानिलजो न्याधिः स मूत्रोत्सङ्गसंशितः ॥(स. उ. तं.) वायु की विगुणता के कारण बस्ति, नाल (मूत्रमार्ग) अथवा मणि में प्रवृत्त हुआ मूत्र अल्प-अल्प या रक्त के साथ, शूलपूर्वक या विना शूल प्रवाहित होता है तो यह अवस्था मूत्रोत्सर्ग कहलाती है। ६६-मूच्र्छाक्षीणस्य बहुदोषस्य विरुद्धाहारसेविनः । वेगाघातादमीषालाद्धीनसत्त्यस्य वा पुनः॥ करणायतनेषूग्रा बाह्येष्वाभ्यन्तरेषु च । निविशन्ते यदा दोषास्तदा मूर्च्छन्ति मानवाः ।। संज्ञाबहाम नाडीपु पिहितास्वनिलादिभिः । तमोऽभ्युपैति सहसा सुखदुःखव्ययोहकृत् ।। सुखदुःखव्यपोहाच्च नरः पतति काष्ठवत् । मोहो मूर्च्छति तां प्राहुः षड्विधा सा प्रकीर्तिता॥ वातादिभिः शोणितेन नद्येन च विषेण च । पट्स्वप्येतासु पित्तं हि प्रभुत्वेनावनिष्ठते ।। विविध कारणों से प्रकुपित हुए दोष जब बाह्य कर्मेन्द्रियों तथा आभ्यन्तरिक मनोबुद्धि-ज्ञानेन्द्रियादिक में प्रवेश कर जाते हैं तभी प्राणी मूर्छित हो जाता है । इन प्रकुपित वातादिक दोषों से जब संज्ञावहस्रोत भर जाते हैं तो सहसा तम का आगमन हो जाने से सुख-दुःख का नाश हो जाता है, जिसके कारण व्यक्ति काष्ठ के समान गिर जाता है, उसे मोह या मूर्छा कहा जाता है । यह वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, रक्तज, मद्यज तथा विषज ६ प्रकार की मानी जाती है। ६७-योनिकन्ददिवास्वप्नादतिक्रोधाद् व्यायामादतिमैथुनात् । क्षताच्च नखदन्ताद्यैर्वाताचाः कुपिता यदा।। पूयशोणितसंकाशं निकुचा कृतिसंनिभम् । जनयन्ति यदा योनौ नाम्ना कन्दः सयोनिजः ॥ (सु. उ. तं.) दिवास्वप्नादि कारणों से कुपित वातादिदोषयोनि में पूयरक्तयुक्त बड़हल की आकृति के जिस कन्द को उत्पन्न करते हैं वह योनिकन्द कहलाता है। ६८-योनिव्यापत्प्रवृद्धलिङ्ग पुरुषं यात्यर्थमुपसेवते । रूक्षदुर्बलबालायास्तस्या वायुः प्रकुप्यति ।। स दुष्टो योनिमासाद्य योनिरोगाय कल्पते। त्रयाणामपि दोषाणां यथास्वं लक्षणेन तु ॥ विशतिापदोयोनेनिर्दिष्टा रोगसंग्रहे । मिथ्याचारेण याःस्त्रीणांप्रदुष्टेनातवेन च ॥ जायन्ते बीजदोषाच्च देवाच्च शृणुताः पृथक ।। ( सु. उ. तं.) रूक्ष दुर्बल जो स्त्री पुरुष के अतिलम्बमान मेहन का उपसेवन बराबर करती है उसका वात दोष कुपित होकर योनि में पहुँचकर योनिरोगों को उत्पन्न कर देता है। यही वायु पित्त और कफ को दुष्ट करके तीनों दोषों के अनुसार योनिरोग उत्पन्न कर देता है। इस प्रकार २० प्रकार के योनिब्यापत् शास्त्र में वर्णित हैं। स्त्रियों के मिथ्याचार से, आर्तवदुष्टि से, बीजदोष से अथवा दैवात् भी इनकी उत्पत्ति सम्भव है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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