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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०७० विकृतिविज्ञान प्रकुपित हो जाते हैं । तुदान्त्र के अन्तिम भाग में क्षत हो जाते हैं। धीरे-धीरे ये क्षत प्राचीर के अन्दर बढ़ते जाते हैं और कभी-कभी प्राचीर को भेदकर पार चले जाते हैं जिसके कारण उदरस्था कला उदरच्छदा शोथ को प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार क्षतों के बढ़ने पर मल के साथ यदि रक्त का स्राव भी मिले तो आन्त्र का भेदन हुआ है ऐसा ज्ञान हो जाता है । यह अवस्था निश्चय ही असाध्य जाननी चाहिए। ५७-मूत्रकृच्छू पृथमलाः स्वैः कुपिता निदानैः सर्वेऽथवा कोपमुपेत्य बस्तौ । मूत्रस्य मार्ग परिपीडयन्ति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात् ।। (च. चि. स्था.) __ अपने-अपने हेतुओं से प्रकुपित हुए वातादिक दोष पृथक-पृथक् अथवा सब मिलकर बस्ति में कोप उत्पन्न करके मूत्र के मार्ग को परिपीडित कर देते हैं जिसके कारण रोगी जब तब कष्टपूर्वक मूत्र त्याग करता है। ५८-मूत्रक्षयरूक्षस्य क्लान्तदेहस्य बस्तिस्थौ पित्तमारुतौ । मूत्रक्षयं सरुग्दाहं जनयेतां तदाह्वयम् ॥ ( स. उ. त.) ___ रूक्ष और क्लान्त देहवाले रोगी के बस्ति में स्थित पित्त और वात नामक प्रकुपित दोष मूत्र का निर्माण नष्ट करके पीड़ा और दाह के साथ मूत्रक्षय नामवाले रोग को उत्पन्न कर देते हैं। ५९-मूत्रग्रन्थि या रक्तग्रन्थिरक्तं वातकफादृष्टं वस्तिद्वारे सुदारुणम् । ग्रन्थि कुर्यात् स कृच्छ्रेण सृजेन्मूत्रं तदावृतम् ।। अश्मरीसमशूलं तं मूत्रग्रन्थि प्रचक्षते ॥ बस्ति के द्वार पर वात और कफ से दुष्ट हुआ रक्त एक प्रकार की दारुण ग्रन्थि बना देता है। उससे आवृत मार्ग होने से कष्ट के साथ मूत्र निकलता है। उसमें अश्मरी जैसा शूल होता है। यह रक्तग्रन्थि या मूत्रग्रन्थि कहलाती है। ६०-मूत्रजठरमूत्रस्य वेगेऽभिहते तदुदावर्तहेतुकः । अपानः कुपितो वायुरुदरं पूरयेद् भृशम् ।। नाभेरवस्तादाध्मानं जनयेत्तीव्रवेदनम् । तन्मूत्रजठरं विद्यादधोबस्तिनिरोधनम् ॥ (सु. उ. त.) मूत्र के वेग के रोक देने से मूत्रनिरोधकारी उदावर्त के फलस्वरूप अपान वायु कुपित होकर उदर को खूब भर देता है जिसके कारण नाभि के नीचे खूब फूल जाता है। खूब वेदना होती है। यह बस्ति के अधोभाग के निरोध से उत्पन्न होता है। ६१-मूत्रशुक्रमूत्रितस्य स्त्रियं यातो वायुना शुक्रमुद्धतम् । स्थानाच्युतं मूत्रयतः प्राक् पश्चाढा प्रवर्तते ॥ भस्मोदकप्रतीकाशं मूत्रशुक्रं तदुच्यते । (सु. उ. तं.) मूत्र के वेग को धारणकर स्त्री के साथ मैथुन में प्रवृत्त व्यक्ति का प्रवृद्ध शुक्र जब वायु द्वारा अपने स्थान से च्युत किया जाता है तो वह मूत्रत्याग के पूर्व या पश्चात् निकलता है। यह भस्म मिले जल या चूना मिले जल के समान होता है। ६२-मूढगर्भसर्वावयवसम्पूर्णो मनोबुद्धयादिसंयुतः । विगुणापानसंमूढो मूढगर्भोऽभिधीयते ॥ (माधव नि.) सब अवयवों से युक्त मनोबुद्धयादि से पूर्ण जब गर्भ अपानवायु की विगुणता से संमूढ होकर अन्यान्य विकृत आसनों को ग्रहण करता है तो उसे मूढगर्भ कहा जाता है। ६३-मूत्रसादपित्तं कफो द्वावपि वा संहन्येतेऽनिलेन चेत् । कृच्छान्मूत्रं तदा पीतं श्वेत रक्तं धनं सृजेत् ॥ सदाहं रोचनाशंखचूर्णवर्णं भवेतु तत् । शुष्कं समस्तवर्ण वा मूत्रसादं वदन्ति तम् ॥ ( अ. ह. नि.) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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