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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४८ विकृतिविज्ञान गमन करनेवाला होने से उस प्रकार से कार्य करता है । इस प्रकार कार्य विशेष से दुष्ट हुए दोष का ज्ञान किया जाता है । मरिच के रौक्ष्य से जो दुष्ट हुआ वायु और जो उसके ही लाघव से वे दोनों एक रूप को नहीं प्राप्त होते हैं । रौदय से कुपित रौक्ष्य अपने ही के गुणवाले से उपबृंहित होता है और काठिन्य, उपशोषणादि कार्य करता है। लाघव द्वारा कुपित हुआ पवन लक्षणों को बढ़ाता हुआ लाघवादिक द्वारा ही प्रदर्शित होता है । इसी प्रकार सभी की कल्पना कर लेनी चाहिए । इसी प्रकार और भी देखें । ४ - यहाँ जो वायुकोपकारक तिक्त-कटु-कषाय- रूक्ष- लघु-शीत-विष्टम्भि- विरूढ तृणधान्यादि का बहुत-सा वर्णन किया गया है वहाँ जो तिक्तरसप्रधान द्रव्य से कोप उत्पन्न हुआ है वह कटु के या अन्य के द्वारा कैसे हो सकता है ? क्योंकि द्रव्यों की कारणारब्धकता अनेक प्रकार की होती है । इसी प्रकार जो पटोल के कारण वायु कोप है वह त्रायमाण- बालकादिक के द्वारा कारणता नहीं प्राप्त करता है । ५ :- और न एक द्रव्य एक ही दोष की उत्पत्ति का आयतन होता है । अतः किसी द्रव्य का अनुचित मात्रा में उपयोग करने पर जैसा गुण उसका लिखा होता है तदनुसार थोड़ा कोप करता है उसी प्रकार उसमें गुणान्तर होने से, सादृश्य से, विलक्षणता होने से अथवा प्रभाव के कारण वही दोषान्तरों में प्रकोप करने के लिए अपने बन्धुवर्ग में उसने कोई शपथ थोड़े ही खा रखी है। इस प्रकार एक में भी दोष का कोप होने से व्याधिकारक अन्य दोष निदानादि की अपेक्षा करके किसी न किसी मात्रा में कम या अधिक उस व्याधि के समुत्थान ( उत्पत्ति ) की अप्राप्ति होने पर भी विकार- विशेष को व्याप्ति हो जाती है । तन्त्रों में ऐसा ही दिखलाई देता है । तथा'कषायपान पथ्यान्नैर्दशाह इति लङ्घितं' आदि । 'देहधात्वबलत्वाच्च ज्वरोजीर्णोऽनुवर्तते' आदि । ६—यह भी तब तक विचारणीय है कि क्यों त्रिदोषजज्वर को लेकर ऐसा कहा गया है । यदि त्रिदोषजाधिकार के कारण यह कहा है सो नहीं है । प्रकरण के अनुसार अविशेष पाठ तथा यथोक्त के असम्भव होने के कारण अथवा सामान्य से भी यह सिद्ध होता है । वहाँ तो एकदोषानुसार रोगोत्पत्ति बतलाई गई है फिर यथोक्त कैसे सम्भव है ? अतः ज्वर के कारणरूप कफ के वमनादिक द्वारा क्षीण हो जाने पर भी उसका ज्वर क्यों क्षीण नहीं होता ? अनपचित होने पर भी स्वकारणदोष के विरुद्ध दोषान्तरकारणता उत्पन्न होती है। जिसके लिए 'प्रयोगः शमयेद् व्याधिः' का उदाहरण दिया गया है। उससे चिकित्सापाद की हानि नहीं है । वह तो व्यामूढक चिकित्सा के विषय में कहा गया है। अनवस्था प्रसङ्ग आने से । ७ – एक ही दोष के द्वारा उत्पन्न रोगों में दोषान्तर सम्प्राप्ति की ओर अभिमुख करता है वही कालादिक की सहायता को प्राप्त करके नाना प्रकार के विकारों को उत्पन्न करता है और न अनेकों द्रव्य एकरूप धारण करके एक ही दोष का कारण होता है । अतः इस प्रकार दुष्ट हुए दोष का ज्ञान करना चाहिए कि किस प्रकार इस दोष की दुष्टि से रोगारम्भ हुआ है । इस तरह दुष्ट हुआ दोष दोषकारणविशेष के वश में होकर अन्य अन्य विकारहेतुता को ग्रहण करता है और वही दोष सम्पूर्ण शरीर का अनुसरण करता हुआ विशिष्ट रोग को उत्पन्न कर देता है । ८ - एक स्थान पर अवस्थित होने पर भी विशिष्ट दोषान्तर होने पर प्रसारित होकर अन्य दोषान्तर में जाकर अनेक दोष भी नानाविध विकार उत्पन्न कर देता है । वही वायु कभी ज्वर कभी कुष्ठादि उत्पन्न कर देते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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