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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राप्तविमर्श १०४५ प्रयुक्त करने पर होता है ? इसी प्रश्न का समाधान सम्प्राप्ति से होता है । अतः सम्प्राप्ति का वर्णन चरक में किया गया है । २ – सम्प्राप्ति आगति · जाति ये तीनों व्याधि के अनर्थान्तर ( पर्याय ) को स्पष्ट करते हैं । सम्प्राप्ति भावे क्तिच्, जाति जनेर्भावे क्तिच् आगति आगमेर्भावे क्तिच् से बनते हैं । जन का जो अर्थ वही आपका भाव है और वही गम का तात्पर्य है । जन प्रादुर्भूत होने के लिये प्रयुक्त होता है । जन में क्तिच लगाने से जाति शब्द बनता है । गम में आङ् उपसर्ग लगाकर क्तिच प्रत्यय से आगति बनता है आगम का अर्थ आना है । सम्प्राप्ति में सं उपसर्ग और क्तिच प्रत्यय आप में जोड़ना पड़ता है । आप का तात्पर्य पहुँचना या व्याप्त होना है । अस्तु तीनों का भाव एक ही है । ३ - जनी प्रादुर्भावे से जनि धातु का अर्थ सत्तानुकूलव्यापार मानना चाहिए । प्रादुर्भाव अर्थात् बाह्यभाव बाहर की ओर आने की प्रेरणा ऐसा स्पष्ट होता है । अतः सम्प्राप्ति सत्तानुकूलव्यापार का स्वरूप होता है। शरीर में रोग होने पर जो सत्ता दोषों की है उसके अनुकूल आचरण का प्राकट्य ही सम्प्राप्ति माना जा सकता है। क्योंकि प्रकृतिभूतकारणों की अभिनिष्पत्ति के रूपान्तर मात्र से सद्भावरूप सतत हेतु बनता है । उत्पन्न हुई जिनसे बाद में वह स्वकारणसमवायरूपसत्ता होती है । यह समवायरूपसत्ता सामान्य सत्ता और विशिष्ट सत्ता इन दो रूपों में प्रकट होती है । आरम्भकर्त्ता पदार्थों से उनकी अपनी-अपनी क्रिया से उत्पन्न उनके बार-बार संयोग वा विभाग से अन्य अन्य रूप में उत्पन्न होने वाली समानप्रसवात्मिका सत्ता सामान्यजाति कहलाती है । प्रकृत कारण जिनकी प्रकृति समान होती है उनके मिलने और पृथक होने के पौनः पुन्य से जो समानप्रसवरूप क्रिया होती है उसमे सामान्यजाति का निर्माण होता है । जैसे सम्पूर्ण ब्राह्मणवर्ग समान प्रसवात्मक होने से सामान्य जातिरूप में कहा जाता है | असमानप्रसवात्मिक सत्ता प्रत्येक व्यक्ति के जन्म का बोध कराती है । जैसे एक-एक ब्राह्मण का जन्म अलग-अलग होता है । सामान्यजन्मना जाति कही जाती है । यह सामान्य जातिलक्षण हुआ । विशेष जाति प्रतिरोग को कहा जावेगा । उत्पन्न हुए भावों का समवायिकारण समवाय जितने काल तक रहता है उस कालतक उनकी उत्पत्ति रहती है । पश्चाद्वर्ती अनुवृत्ति का कारण समवाय है जिसे सत्ता कहते हैं । उस सत्ता के अनुकूल व्यापार प्रकृतिभूत Fort की अपनी-अपनी क्रियाओं से परस्पर बार-बार संयोग-विभाग उत्पन्न करके कराया जाता है । उन-उन कार्यों के स्वरूपनिर्माण में सर्व अवयवजन्य समवाय ही मुख्य है । ४- शारीरिक व्याधि की उत्पत्ति निज निज कारणों से दुष्ट हुए दोषों की दुष्टि से ही बहुधा होती है । वही संग्रह से प्राकृत तथा वैकृत दो प्रकार की होती है । प्राकृत दुष्टि ऋ वर्ष दिन, रात्रि, भुक्तांश काल के द्वारा किये गये प्रकृत अपने लक्षणों से उत्पन्न संचय और प्रकोप की स्वाभाविक अवस्था वैकृत दृष्टि से तात्पर्य उस अस्वाभाविक अवस्था से है जो ऋतु आदि के अपने स्वाभाविक लक्षणों के हीन विपर्यय, अति विपर्यय वा मिथ्या विपर्यय से अथवा दुष्ट निदानके सेवन से बनती है । यह वैकृती दुष्टि भी पुनः दो प्रकार की होती है। एक-एक, दो या सब उपरोक्त कारणों के क्षय वा वृद्धि से उत्पन्न और दूसरी - रज व तम के अकेले या दोनों के सम्मिलन से उत्पन्न होती है । ६- शारीरिक दोषों के संसर्ग से उत्पन्न हुई यह दुष्टि भी दो प्रकार की होती है एक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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