SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ विकृतिविज्ञान ४. इस रोग में यदि एक बार कपाटों पर आक्रमण हो गया हो तो फिर किसी भी समय रोग का पुनराक्रमण या पुनः उपसर्ग हो सकता है, ५. यदि किसी कारण से परिहृत्पाक होजाता है तो उसमें उत्स्यन्द भी देखा जाता है जिसका प्रचूषण यदि न हुआ तो तान्तव समङ्गीकरण होता है जो परिहृत् के दोनों स्तरों को पेशी के ऊपर चिपका देता है जिससे हृदय में परमपुष्टि होती है । वामालिन्द की परमपुष्टि का वर्णन पहले किया जा चुका है, ६. आमवातज उपसर्ग के ही कारण आगे चलकर ऐच्छिक पेशियों में आक्षेप आने का रोग जिसे ताण्डवज्वर ( chorea ) कहते हैं होजाता है, ७. इस रोग में मृत्यु का कारण हृत्पेशी के तन्तुओं में तन्तूस्कर्ष होना या परिहृत् के दोनों स्तरों के चिपक जाने से हृद्ग्रह या हृद्भेद (heart failure ) का होना है । कपाटों की विकृति से हृत्पेशीकम्प होकर भी हृद्भेद हो सकता है । हृदन्तश्छदपाक ( Endocarditis ) कारण की दृष्टि से हृदन्तश्छद का व्रणशोथ दो प्रकार का होता है जिसमें एक आमवातजन्य है जिसका वर्णन हम पीछे कर चुके हैं दूसरा जीवाणुजन्य होता है जिसे हम आगे लेंगे, साथ ही, विज्ञत के स्थान की दृष्टि से भी यह दो प्रकार का ही होता है जिसमें एक कपाटीय हृदन्तश्छदपाक ( Valvular endocarditis ) या हृत्कपाटपाक ( Valvulitis ) कहलाता है जिसमें विक्षत केवल हृत्कपार्टी पर ही होते हैं तथा दूसरा प्रकोष्ठीयहृदन्तश्छदपाक (Mural endocarditis ) कहलाता है उसमें हृदय के प्रकोष्ठों ( chambers ) की अन्तश्छद में व्रणशोथ हो जाता है । दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में स्मरणीय है वह यह कि गर्भोत्तर काल में हृदन्तश्छदपाक हृदय के दक्षिण भाग में प्रायशः देखा जाता है परन्तु प्रसवोपरान्त वामभाग में रोग का आक्रमण डट कर होता है उसमें भी द्विपत्रक तथा महाधामनिक कपाटों पर ही उसका अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । तीसरी बात उद्भेदों (vegetations ) के सम्बन्ध में जान लेनी चाहिए कि आमवातज उद्भेद रक्त के बिम्बाणुओं के कारण बनते हैं इसलिए छोटे छोटे और दृढ़मूल वाले होते हैं तथा वे चर्मकील सदृश देखे जाते हैं । जीवाणुओं के कारण होने वाले हृदन्तश्छदपाक में उद्भेदों का कारण तन्वि होती है । ये उद्भेद पर्याप्त बड़े होते हैं और आसानी से टूटकर अन्तःशल्यता करने में दक्ष होते हैं । अवस्था के अनुसार भी हृदन्तश्छद पाक के दो भेद होते हैं, एक तीव्रावस्था ( acute stage) तथा दूसरी जीर्णावस्था ( chronic stage ) । जीर्ण हृदन्तश्छदपाक का कारण आमवात, फिरङ्ग या कपाटों में उत्पन्न होने वाला विहासात्मक परिवर्तन होता है । जीर्णावस्था के उद्भेद चूर्णीय पिण्ड ( calcareous masses) होते हैं। अब हम शेष रहे विविध हृदन्तश्छदपाकों पर संक्षिप्त प्रकाश डालेंगे | For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy