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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२६ विकृतिविज्ञान प्रकार के होते हैं। केवल शरीर में किसी एक रोगाणु की उपस्थिति मात्र से ही रोग नहीं हो जाता बल्कि रोग का मुख्य कारण उन रोगाणुओं द्वारा विषैले द्रव्यों का निर्माण हो होकर उस द्रव्य का व्यक्ति के शरीर में पहुँचना होता है। वे द्रव्य शरीर-धातुओं को आघात पहुँचाते हैं । आघात पहुँचाने की अनेक विधियाँ हो सकती हैं। एक तो यही कि कभी कभी वे रक्त में उपस्थित रोगनाशक श्वेतकणों को नष्ट करते हैं और कभी कभी भक्षिकायाणुओं (phagocytes ) की उत्पत्ति ही रोक देते हैं । अतः शरीर के लिए घातक द्रव्यों वा विर्षों का (जिन्हें रोगाणु उत्पन्न करते हैं ), ज्ञान करना भी आवश्यक है । ये घातक द्रव्य वा विष ५ प्रकार के होते हैं: १. बहिर्विष ( Exotoxins ) २. अन्तर्विष ( Endotoxins ) ३. व्यंशियाँ ( Lysins) ४. अग्रापकारि ( Aggressins ) ५. शविकक्षाराम ( Ptomaines ) । बहिर्विष-रोगाणुओं की काया से वास्तव में निस्सरण करने वाला यह एक घातक पदार्थ है जो उसके शरीर से स्वतन्त्र होकर स्वतन्त्रतापूर्वक रक्त में भ्रमण करता है। इन्हें कृत्रिम रूप से भी तैयार किया जा सकता है। विविध रोगाणुओं के बहिर्विषों में भी अन्तर होता है। परन्तु वे अस्थायी स्वरूप के पदार्थ होते हैं जो कुछ समय तक उबालने से या सूर्य की धूप दिखाने मात्र से ही विघटित हो जाते हैं। यदि बहिर्विषों को सञ्चित किया जावे तो भी वे विघटित हो जाते हैं तथा रासायनिक पदार्थों के संयोजन से उन्हें कुछ कम विषैले विषाभों ( toxoids ) में परिणत कर देते हैं । इन बहिर्विषों का विभिन्न प्राणियों में अन्तर्वेधन करके प्रतिविषों (antitoxins ) का निर्माण करते हैं। कभी कभी विषों का प्रयोग न करके विषाभों का प्रयोग करते हैं जो कम विषैले होने पर भी प्रतिविप वैसे ही उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हैं । रोहिणी, धनुर्वात, बोटयूलिज्म ( botulism ), वातिक कोथ (gas-gangrene ) के रोगाणुओं के बहिर्विष प्रमुख हैं। इनमें प्रथम तीन बहिर्विषों का प्रभाव वातनाड़ीसंस्थान पर बहुत उग्र होता है। माला और स्तबक गोलाणुओं ( strepto & staphylococci ) के कुछ प्रकार (strains ) भी बहिर्विष उत्पन्न करते हैं । इन बहिर्विषों के विविध घटकों ( components ) का भी ज्ञान अब प्राप्त हो चुका है । इन घटकों में रुधिरजनक कारक (erythrogenic factor) आतभेद ( coagulase ) तन्व्यं शि ( fibrolysin ) प्रसरण कारक ( spreading factor ) प्रमुख हैं। अन्तविष-कुछ रोगाणु जब तक सजीवावस्था में रहते हैं उनसे कोई विशेष हानि होती हुई नहीं देखी जाती परन्तु जब वे नष्ट हो जाते वा मर जाते हैं तो उनके शरीर का विष निकल कर मानव शरीर पर बड़ा भयङ्कर परिणामकारक हो जाता है जो यह प्रकट करता है कि रोगाणु और विषाक्त पदार्थ ये दोनों सजीवावस्था में एक साथ रहते हैं और रोगाणु के मरते ही विष स्वतन्त्र हो जाता है। क्योंकि यह विष रोगाणु के मरने के बाद प्राप्त होता है अतः अन्तर्विष कहलाता है। इन अन्तर्विषों के For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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