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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोगापहरणसामर्थ्य १०२५ तीव्र संक्रामक अवस्थाओं में निश्चेष्टक्षमता (passive immunisation ) की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि इस अवस्था में रोगी स्वयं प्रारम्भिक रोगापहारक पदार्थों के निर्माण में समर्थ नहीं होता है क्योंकि रोगकारी जीवाणु उसे वैसा करने में असमर्थ बना देते हैं । इस प्रकार प्राप्त निश्चेष्ट अवाप्तक्षमता अल्पकालिक होती है किन्तु तो भी यह उपसर्ग की विभीषिका को मन्द करती है तथा रोग के उग्रस्वरूप को सौम्य बना देती है। किसी भी प्रकार की क्षमता हो प्रत्येक रोग के लिए विशिष्ट प्रकार की (specific to each disease ) निश्चित होती है। यही कारण है कि जब एक रोग व्यक्ति को हो जाता है तो उसे दूर करने के लिए उसमें सचेष्ट क्षमता का निर्माण हो जाता है परन्तु वह क्षमता उसी रोग के लिए निश्चित है क्योंकि उस रोग के पश्चात् दूसरा रोग हो सकता है और उसके लिए अलग से क्षमता उत्पन्न होती है। इसी प्रकार कृत्रिम क्षमता भी उन्हीं जीवाणुओं के प्रति उत्पन्न की जा सकती है जिन जीवाणुओं का कि प्रयोग किया जाता है। आजकल क्षमता या रोगापहरणसामर्थ्य नामक विषय की गवेषणा बहुत बड़े प्रमाण में हो रही है । उसके कारण बहुत अधिक लाभ हुआ है । प्रारम्भ में इस विषय को लेकर दो मत प्रचलित थे-एक मेचिनीकोफ का, जो यह कहता था कि क्षमता का कारण शरीरस्थ कोशाओं (विशेषकर श्वेतकों) की क्रिया है। दूसरा मत नट्टल, बुक्नर और फ्लुग्गे आदि का था जो कहते थे कि रोगों की प्रतीकारकशक्ति शरीरस्थ विविध तरलों ( विशेषकर रक्त की लसीका) के द्वारा अवाप्त विशेष गुणों पर निर्भर करती है। प्रथम कोशीयमत (Cellular theory) और दूसरी तरलीयमत ( Humoral theory ) कहलाती थी। इन दोनों मतों के प्रतिपादक एक दूसरे के समीप कदापि आना पसन्द नहीं करते थे। पर आज यह स्पष्टतः स्वीकार किया जाता है कि क्षमता की प्रतिक्रियाओं को सम्पन्न करने में कोशा तथा तरल दोनों ही सम्मिलित हैं । कोषा भक्षिकायाणूत्कर्ष (phagocytosis ) द्वारा तथा तरल कोशीय क्रिया द्वारा निर्मित संरक्षक पदार्थों के द्वारा क्षमता उत्पन्न करते हैं । सर्वसामान्यतया शरीर की संरक्षक प्रतिक्रियाएँ २ भागों में विभक्त की जा सकती हैं। एक भाग वह जिसके द्वारा जीवाणुओं के विर्षों का निर्विषीकरण (neutralisation of the bacterial toxins ) होता है तथा दूसरा भाग वह जिसके द्वारा जीवाणुओं की काया का विनाश किया जाता है। प्रथम भाग के द्वारा विषप्रतिविर्षों ( toxin-antitoxin ) का ज्ञान होता है और दूसरे भाग से प्रसमूहन (agglutination), कायांशन ( cytolysis ), भक्षिकायाणूकर्ष (phagocy. tosis ) का वर्णन आता है । हम आगे इन सब प्रक्रियाओं का वर्णन करेंगे। रोगाणुओं के विविध विष ( Types of the Bacterial Poisons ) रोगोत्पादक जीवाणुओं को रोगाणु ( bacteria) कहते हैं। ये रोगाणु अनेक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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