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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२२ विकृतिविज्ञान क्षमता ( natural immunity ) कहा जाता है । तथा भर्त्तस्य रोगनुत् भेषज वा शक्ति को कृत्रिम या क्षमता ( acquired immunity ) कहते हैं । रसायन के द्वारा होने वाले लाभों को आचार्य चरक ने निम्न सूत्रों द्वारा व्यक्त किया है : :-- दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्यं तरुणं वयः । प्रभावर्णस्वरौदार्यदेहेन्द्रियबलं परम् ॥ वाक्सिद्धिं प्रति कान्ति लभते ना रसायनात् । लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम् ॥ आचार रसायन के सम्बन्ध में चरक के निम्न सूत्र स्मरण रखने होंगेसत्यवादिनमक्रोधं निवृत्तं मद्यमैथुनात् । अहिंसकमनायासं प्रशान्तं प्रियवादिनम् ॥ जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम् । देवगोब्राह्मणाचार्यगुरुवृद्धार्चने रतम् ॥ आनृशंस्यपरं नित्यं नित्यं कारुण्य वेदिनम् । समजागरणस्वप्नं नित्यं क्षीरघृताशिनम् ॥ देशकालप्रमाणज्ञं युक्तिज्ञमनहङ्कृतम् । शस्ताचारमसङ्कीर्णमध्यात्मप्रवलेन्द्रियम् ॥ उपासितारं वृद्धानामास्तिकानां जितात्मनाम् । धर्मशास्त्रपरं विद्यान्नरं नित्यरसायनम् ॥ गुणैरेतैः समुदितैः प्रयुङ्क्ते यो रसायनम् । रसायनगुणान् सर्वान् यथोक्तान् स समश्नुते ॥ अर्थात् सत्यवादी, क्रोधरहित, मद्य और मैथुन न सेवन करने वाला, मन-वचन-कर्म से अहिंसक, अधिक आयास ( श्रम ) न करने वाला, शान्तचित्त, प्रियभाषी, जप करने वाला, शौच ( पवित्रता ) रखने वाला, धैर्यवान्, नित्य दान करने वाला, तपस्वी, देवगोब्राह्मणाचार्य और गुरु की अर्चना करने वाला, क्रूरतारहित, नित्य दयादृष्टि रखने वाला, निद्रा और जागरण सम वा युक्त मात्रा में सेवन करने वाला, नित्य दुग्ध और घृत सेवन करने वाला, देश-काल और प्रमाण का ज्ञाता, युक्तिज्ञ, अनहङ्कारी, सदाचारी, उदार, अध्यात्म में इन्द्रिय जिसकी प्रवृत्त हों, वृद्ध-आस्तिक-जितात्माओं का उपासक, धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण रखनेवाले व्यक्ति को रसायनसेवी ही जानना चाहिए । उक्त आचार रसायन के गुण स्पष्टतया यह उद्घोषित करते हैं कि उत्तम प्रकार से जीवनचर्या रखने से शरीर में क्षमताशक्ति बढ़ कर उसे न केवल नीरोग किन्तु दीर्घजीवी भी बना देती है । प्राचीनकाल में क्योंकि जनता इन गुणों का अधिक से अधिक पालन करती थी इसी कारण इस क्षमताशक्ति के विषय में पृथक से ऊहापोह करने की आवश्यकता नहीं थी । जैसे किसी एक रोग की सरल चिकित्सा ज्ञात हो जिससे वह तुरत शान्त हो जाता है तो फिर बहुत अधिक विस्तार से उसे जानने की आवश्यकता नहीं रहती । जब उसकी चिकित्सा कठिन होती है तो फिर उसका निदान, पूर्वरूप, रूप, सम्प्राप्ति, उपशयादि के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है । अब चूँकि व्यक्तियों का दृष्टिकोण बदल गया है और उक्त गुणों में से एकाध भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होता है । इस रोगापहरण सामर्थ्य या क्षमताशक्ति के सम्बन्ध में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता भी प्रतीत हुई है । क्षमता के दो प्रकार क्षमता दो प्रकार की होती है। एक को प्राकृतक्षमता (natural immuinty) कहते हैं तथा दूसरी को अवाप्तक्षमता ( acuired immuinty ) कहा जाता है । आगे इनका वर्णन किया जाता है : : For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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