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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्दश अध्याय रोगापहरणसामर्थ्य आयुर्वेद में जो अङ्ग रसायनतन्त्र कहलाता है उसका और रोगप्रतीकारिता ( Immunity )का पूरा-पूरा सामञ्जस्य होता है। आचार्यों ने रसायनतन्त्र का अर्थ बतलाते हुए लिखा है रसायनतन्त्रं नाम वयःस्थापनमायुधाबलकरं रोगापहरणसमर्थं च । अर्थात् जिस शास्त्र के द्वारा आयु की स्थापना, बुद्धि की तीव्रता, बल की वृद्धि तथा रोगों के अपहरण की सामर्थ्य आती है वह रसायनतन्त्र कहलाता है। आजकल रसायनतन्त्र में कुछ बलवर्द्धक योगों का वर्णन आता है परन्तु रोगापहरणसामर्थ्य नामक जिस सद्गुण का नामोल्लेख किया गया है वह शरीर में ही निहित होता है उसे विविध आयुष्य और मेध्य द्रव्यों के प्रयोग से बढ़ाया जा सकता है तथा उसकी बढ़ोतरी अनेक सद्व्यवहारों के द्वारा भी की जाती है जिन्हें आचार्यों ने आचाररसायन नाम से संबोधित किया है। नीचे हम आचाररसायन के सम्बन्धी सूत्रों का उल्लेख करेंगे और उनसे यह स्पष्टतया देख सकेंगे कि यदि मनुष्य उनका विधिवत् सेवन करे और अपना व्यवहार योग्य बनावे तो विविध उपसर्गों से शरीर की रक्षा करनेवाली विजयवाहिनी शक्ति जिसे क्षमता या प्रतीकारिता कहते हैं, का उदय होकर व्यक्ति शतञ्जीवी बनाया जा सकता है।प्राचीन शास्त्रकारों ने क्षमता के विभिन्न भेदों का पृथक्करण करके उनका अध्ययन नहीं किया इसीलिए क्षमता वा रोगापहरणसामर्थ्य के भेद, उनके बढ़ाने और घटाने के प्रकार तथा विविध रोगों के जीवाणुओं पर क्षमता के चमत्कारों का वर्णन नहीं किया। यह भी विस्मरण न करना चाहिए कि क्षमता शरीर में निहित रोगकर हेतुओं से प्रतिरोध करने वाली एक शक्ति है तथा रसायन उस शक्ति को वृद्धिंगत करने के साधनों का नाम है। 'यज्जराव्याधिविध्वंसि भेषजं तद् रसायनम्' अर्थात् जो जरा (वृद्धत्व ) और व्याधि (रोग) का विध्वंस कर सकती है उस भेषज का नाम रसायन है।भेषज का अर्थ रोगापनयन के लिए चिकित्सकों द्वारा प्रयुक्त जो भी हो वह सब होता है। यह भेषज २ प्रकार की कही गई है-एक स्वस्थस्यौजस्कर (जो ओज आदि की वृद्धि करके स्वास्थ्य का संरक्षण करे ) तथा दूसरी-आर्तस्य रोगनुत् (जो रुग्ण के रोग का नाश करे) अतः रसायन से 'स्वस्थस्यौजस्कर' तथा आर्तस्य रोगनुत्' नामक ओषधियों वा क्रियाओं का ग्रहण किया जाता है जो जराव्याधि को नष्ट कर व्यक्ति को पूर्णायु कर सकें । स्वस्थस्यौजस्कर भेषज वा शक्ति को प्राकृतिक For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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