SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१५ अग्नि वैकारिकी क्षीणरेताः क्षामस्वरः क्रोधनोऽल्याग्निर्घाणशिरोऽक्षिश्रवणरोगवान्, सततमन्त्रकूजाटोपहृदयोपलेपारोचकप्रभृतिभिः पीड्यते । ( सुश्रुत ) (२) तत्र सहजान्यर्शासि कानिचिदणूनि कानिचिन्महान्ति कानिचिद्दी;णि कानिचिद्धस्वानि कानिचिवृत्तानि कानिचिद्विषमविस्तृतानि कानिचिदन्तःकुटिलानि कानिचिद्वहिःकुटिलानि कानिचिज्जटिलानि कानिचिदन्तर्मुखानि यथास्वं दोषानुबन्धवर्णानि ।। तैरुपहतो जन्मप्रभृति भवत्यतिकृशो विवर्णः क्षामो दीनः प्रचुरविवद्धवातमूत्रपुरीषः शारी चाइमरी वा तथाऽनियतविबद्धमुक्तपक्कामशुष्कभिन्नवर्चा अन्तरान्तरा श्वेतपाण्डुहरितपीतरक्तारुण तनुसान्द्रपिच्छिलकुणपगन्धामपुरीषोपवेशी नाभिबस्तिवंक्षणोद्देशे प्रचुरपरिकर्तिकान्वितः सगुदशूलप्रवाहिकापरिहर्षप्रमोहप्रसक्तविष्टम्भान्त्रकूजोदावर्तहृदिन्द्रियोपलेपः प्रचुरविबद्धशुक्ताम्लोद्गारः सुदुर्बलः सुदुर्बलाग्निः क्रोधनः स्वल्पशुक्रो दुःखोपचार शीलः कासश्वासतमकतृष्णाहृल्लासच्छर्घरोचकाविपाकपीनसक्षवथुपरीतस्तैमिरिकः शिरःशूली क्षामभिन्नसंसक्तजर्जरस्वरः कर्णरोगो शूनपाणिपादवदनाक्षिकूटः सज्वरः साङ्गमर्दः सर्वपस्थिशूली चान्तरान्तरा पार्थकुक्षिबस्तिहृदयपृष्ठत्रिकग्रहोपतप्तः प्रध्मानपरः परमलश्चेति ॥ जन्मप्रभृत्यस्य हि गुदमार्गोपरोधाद् वायुरपानः प्रत्यारोहन् समानोदानप्राणव्यानपित्तश्लेष्मदोषान् प्रकोपयति । एते सर्वे एव कुपिताः पञ्चवायवः पित्तश्लेष्माणौ चार्शसम् अभिद्रवन्तस्तान् विकारान् जनयन्ति । इत्युक्तानि सहजान्यर्शासि ॥ ( चरक ) (३) सहजानि विशेषेण रूक्षदुर्दर्शनानि च । अन्तर्मुखानि पाण्डूनि दारुणोपद्रवाणि च ।। (अ. हृ.) सहज अर्श माता के दुष्ट रक्त अथवा पिता के दुष्ट शुक्र के कारण उत्पन्न होते हैं। इनका वर्गीकरण दोषानुसार ही करना चाहिए। यथा-वातिक सहजार्श, पैत्तिक सहजार्श, श्लैष्मिक सहजार्श आदि जन्मोत्तरकालीन अर्थों की अपेक्षा सहजार्श देखने में कुरूप, परुष, पाण्डवीय, दारुण, अन्तर्मुखी, कोई इतना छोटा जैसे अणु, कोई बड़ा, कोई दीर्घ, कोई हस्व, कोई गोल, कोई विषमतया फैले हुए, कुछ अन्दर से कुटिल, कुछ बाहर से कुटिल, कोई जटिल और अपने-अपने दोष के अनुसार वर्णवाले यथा वायु से कृष्णारुण, पित्त से नीलाभ या पीताभ तथा श्लेष्मा से श्वेत होते हैं। वाग्भट ने सहजाों को विशेष रूप से रूक्ष माना है तथा दारुण उपद्रवों से युक्त लिखकर छोड़ दिया है। चरक ने इन उपद्रवों का साङ्गोपाङ्ग चित्रण किया है। सुश्रुत ने सहजार्शी को कृश, थोड़ा खानेवाला, शरीर पर सिराओं का प्रकट होना, थोड़ा सन्तानवाला, क्षीणवीर्य, दुर्बलस्वर, क्रोधी, अग्निमान्य से पीड़ित, नासा, आँख, कान और शिरोरोगों से पीड़ित जिसकी आँतों में बराबर कूजन होता रहता है, जो आटोप, हृदयोपलेप, अरुचि आदि से पीड़ित ऐसा स्वीकार किया है। चरक ने सहजार्शी पर एक पूरा निबन्ध लिखा है। उसने सभी पहलुओं को साङ्गोपाङ्ग चित्रित किया है । उसके अनुसार एक सहज अर्श से पीड़ित रोगी: १. अत्यन्तकृश होता है उसकी मांसपेशियाँ अपुष्ट होती हैं। २. उसका वर्ण चमकदार नहीं होता। ३. वह क्षीण और दीन होता है। ४. वह वात, मूत्र और मल प्रचुरमात्रा में और विबद्ध रूप में उत्सर्जित करता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy