SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१४ विकृतिविज्ञान रक्तार्श (१) रक्तजानि न्यग्रोधप्ररोहविद्रुमकाकणन्तिकाफलसदृशानि पित्तलक्षणानि च, यदाऽवगाढपुरीष (प्रवृत्ति ) पीडितानि भवन्ति तदाऽत्यर्थं दुष्टमनल्पमसृक् सहसा विसृजन्ति, तस्य चातिप्रवृत्तौ शोणितातियोगोपद्रवा भवन्ति ॥ (सु० नि० स्था० अ० २-१३) (२) रक्तोल्बणा गुदे कीलाः पित्ताकृतिसमन्विताः। वटप्ररोहसदृशा गुआविद्रुमसन्निभाः॥ तेऽत्यर्थं दुष्टमुष्णं च गाढविट्प्रतिपीडिताः। स्रवन्ति सहसा रक्तं तस्य चातिप्रवृत्तितः ।। भेकाभः पीड्यते दुःखैः शोणितक्षयसम्भवैः। हीनवर्णबलोत्साहो हतौजाः कलुपेन्द्रियः ।। (अ. ह. नि. स्था. अ. ७) ( ३ ) ............."रक्तजातं तु पित्तोत्थार्शः प्लक्षप्ररोहप्रतिममथ समं चोच्चटाविद्रुमाभ्याम् । भेकाभं पीड्यते सस्रतिभिरतितरामुष्णविटकः सकष्टं वापि घ्राणास्यलिङ्गेष्वपि भवति च तद्रक्तजं रक्तवाहि ॥ (वैद्यचन्द्रोदय) ( ४ ) रक्तोल्बणगुदे कीलाः पित्ताकृतिसमन्विताः। शृङ्गायैः शोणितस्रावो ह्यधोवायुर्न गच्छति ॥ (भेषजकल्प ) ऊपर रक्तज अर्शी के सम्बन्ध में कुछ वाक्य उद्धृत किये गये हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि रक्तज अर्श पित्तज अर्श के ही समान होते हैं। इनका रंग पिलखुन या बरगद की कोंपल, प्रवाल (मँगा) अथवा गुञ्जाफल (रत्ती) के समान लाल होता है । वे कब्ज के कारण कठिन मल के द्वारा पीडित किये जाने पर गर्म-गर्म काला (दुष्ट) रक्त एकदम अधिक मात्रा में गिरा देते हैं। अधिक रक्त के गिरते रहने के कारण रोगी में रक्तक्षय बढ़ने लगता है वह मेंढक सा पीला पड़ जाता है रक्तक्षय के कारण वायु का प्रकोप अधिक होने से उसे अधिक पीड़ा होती है और वह बल, वर्ण, उत्साह से हीन, ओज से हत और दुर्बल इन्द्रिय हो जाता है। रक्तज अर्श न केवल गुदमार्ग में ही बनते हैं अपितु नासा, मुख, कर्णादि स्थलों में भी बन सकते हैं। सींगी द्वारा इनसे साधारणतया भी रक्त का स्राव कराया जा सकता है। रक्तजार्श में रक्तस्राव उसी अवस्था में प्रायः देखा जाता है जब वायु के अधोगमन में रुकावट हो जाती है जो कब्ज में प्रायशः देखी जाती है। रक्तार्श में वात और कफ का अनुबन्ध भी हो सकता है। उसके लक्षण शास्त्र में निम्न दिये गये हैं: तत्रानुबन्यो द्विविधः श्लेष्मणो मारुतस्य च । विट्श्यावं कठिनं रूक्षमधोवायुनं वर्तते ॥ तनु चारुणवर्णं च फेनिलं चासृगर्शसाम् । कट्यरुगुदशूलं च दौर्बल्यं यदि चाधिकम् ॥ तत्रानुबन्धो वातस्य हेतुर्यदि च रूक्षणम् । शिथिलं श्वेतपीतञ्च विनिग्धं गुरुशीतलम् ।। यधशस्तं धनं चोसक तन्तुमत् पाण्डुपिच्छिलम् । गुदं सपिच्छं स्तिमितं गुरुस्निग्धे च कारणम् । इलेष्मानुबन्धो विशेयस्तत्र रक्तार्शसां बुधैः ।। सहजार्श पीछे हमने त्रिदोषजार्श को सहजार्श के तुल्य ठहराया है। सहजार्श का विवेचन विविध आचार्यों ने निम्नलिखित शब्दों में किया है: (१) सहजानि दुष्टशोणितशुक्रनिमित्तानि, तेषां दोषत एव प्रसाधनं कर्त्तव्यं, विशेषतश्चैतानि दुर्दर्शनानि परुषाणि पाण्डूनि दारुणान्यन्तर्मुखानि, तैरुपद्रुतः कृशोऽल्पभुक् सिरासन्ततगात्रोऽल्पप्रजः For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy