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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनि वैकारिकी वातार्श Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ - शीतत्वतोदं परुषं विनिद्रा गुल्मोदराष्ठीलविषूचिका वा । शोफवुभौ कृष्णनखस्य नेत्रे लिङ्गानि वातप्रभवार्शसानाम् ॥ ( हारीत ) १००६. २ - गुदाङ्कुरा बह्वनिलाः शुष्काश्चिमचिमान्विताः । ग्लानाः श्यावारुणाः स्तब्धा विशदाः परुषाः खराः ॥ मिथो बिसदृशा वक्रास्तीक्ष्णा विस्फुटिताननाः । बिम्बीखर्जूरकर्कन्धु कार्पासीफलसन्निभाः ॥ केचित् कदम्बपुष्पाभाः केचित्सिद्धार्थकोपमाः । शिरः पार्श्वासकच्चूरुवचणाद्यधिकव्यथाः ॥ क्षवथूद्गारविष्टम्भहृद ग्रहारोचकप्रदाः । कासश्वासाग्निवैषम्य कर्णनादभ्रमावहाः ॥ तैरात ग्रथितं स्तोकं सशब्दं स प्रवाहिकम् । रुक्फेनपिच्छानुगतं विबद्धमुपवेश्यते ॥ कृष्णत्वङ्नखविण्मूत्रनेत्रवक्त्रश्च जायते। गुल्मप्लीहोदराष्ठीला सम्भवस्तत एव च ॥ ( माधवनिदान ) ३ – तत्र मारुतात् परिशुष्कारुणवर्णानि विषममध्यानि कदम्बपुष्पतुण्डिकेरी नाडीमुखसूची मुखाकृतीनि च भवन्ति । तैरुपहतः सशूलं संहतमुपवेश्यते । कटीपृष्ठपाश्र्वमेद्गुदनाभिप्रदेशेषु चास्य वेदना गुल्माष्ठीला प्लीहोदराणि चास्य तन्निमित्तान्येव भवन्ति । कृष्णत्वङ्नखनयनवदनमूत्रपुरीषश्च पुरुषो भवति । (सु. नि. अ. २ ) ४- तेषामयं विशेषः - शुष्कम्लानकठिन परुषरूक्षश्यावानि तीक्ष्णाग्राणि वक्राणि स्फुटितमुखानि विषमविस्तृतानि शूलाक्षेपतोदस्फुरणचिमिचिम संहर्षपरीतानि स्निग्धोष्णोपशयानि प्रवाहिकाध्मान शिश्नवृषणबस्तिवङ्क्षणहृद् ग्रहाङ्गमर्द हृदयद्रवप्रबलानि प्रततविवद्धवातमूत्रवचसि कठिनवचस्यूरुकटिपृष्ठत्रिकपार्श्वकुक्षिबस्तिशूलशिरोऽभितापक्षवथूगारप्रतिश्यायकासोदावर्तायासशोषशोथमूर्च्छारोचकमुखवैरस्य तैभिर्यकण्डूनासाकर्णशङ्खशूल स्वरोपघातकराणि श्यावारुणपरुषनखनयनवदनत्वमूत्रपुरीषस्य वातोल्वणान्यसीति विद्यात् । (च. सं. चि. स्था. अ. १४ ) उपर्युक्त उद्धरण इस बात के प्रमाण हैं कि प्राचीनाचार्यों को वातोल्बण अर्श का ठीक-ठीक ज्ञान था अथवा यों कहिए कि किन-किन लक्षण समूहों का एकत्रीकरण वातार्श के लिए परमावश्यक है उसे वे भले प्रकार से जानते थे । उनके विचार से वार्तिक अर्श में जो मस्से या कीलक मिलते हैं वे सूखे, मलिन, कठिन, परुष, रूक्ष और श्याव रंग के होते हैं। उनके अग्रभाग नुकीले और मुख फूटे हुए होते हैं । वे विषमतया फैले होते हैं । उनमें खूब दर्द होता है साथ ही तोद और आक्षेप, चिमचिमाना, स्फुरना तथा रोमहर्ष होता रहता है । बसवराजीयकार इनके वर्ण के विषय में लिखता है - For Private and Personal Use Only जायन्ते ह्यङ्करैः श्यामैः शुष्काशसि च मारुतात् । सूखे और काले रंग के अंकुरों का होना वातार्श में महत्वपूर्ण है । इन कीलकों या अङ्कुरों की उपमा विविध पुस्तककारों ने विभिन्नतया दी है। बसवराजीयकार उसे नीम के बीज, सरसों या बिनौले के बीज के समान मानता है । हारीत इन्हें परुषा विषमा दीर्घा वातेन गुदजा मताः कहता है । माधवकर बिम्बीखर्जूरकर्कन्धुकार्पासीफलसन्निभाः कहता है । कदम्बपुष्पाभाः और सिद्धार्थकोपमाः भी इन्हें वह मानता है । सुश्रुत का नाडीमुख सूचीमुख कहना भी यथार्थ है । उपर्युक्त लक्षणों के साथ-साथ कुछ अन्य लक्षण भी दिये हैं जिनका सम्बन्ध सम्पूर्ण शरीर से आता है । ये लक्षण ८५, ८६ वि०
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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