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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १००८ विकृतिविज्ञान पर पार्श्व-कुक्षि बस्ति, हृदय, पृष्ठ, त्रिक की जकड़न का भी अनुभव कर सकता है । वह ध्यान वा चिन्तापरायण तथा अत्यन्त आलसी होता है । उपर्युक्त चित्रण यह स्पष्ट कर देता है कि सहजार्शी का पहचानना कोई अति कठिन बात नहीं फिर भी कभी कभी उपर्युक्त सम्पूर्ण लक्षण नहीं मिला करते। किसी को कोई लक्षण मिलता है और दूसरों को कोई । अतः निदान में बड़ी सावधानी की आवश्यकता पड़ती है । सहजा के उपद्रवों की सम्प्राप्ति बतलाते हुए चरक ने लिखा है कि सहजारी से पीडित का गुदमार्ग आवृत रहता है । मार्गीयरोध के कारण अपानवायु प्रत्यारोह करके समान, व्यान, प्राण और उदान नामक दोष चार वायुओं को तथा पित्त और लेष्माको सन्दूषित करके प्रकुपित कर देती है । ये पाँचों वात और पित्त तथा कफ सभी प्रकुपित होकर उन उपद्रव वा विकारों को उत्पन्न कर देते हैं जिनका वर्णन पहले किया जा चुका है । जातस्योत्तरकालज अर्श चरक ने हेतु और सम्प्राप्ति का सर्वसामान्यनिरूपण करने के लिए निम्न वाक्य लिखे हैं गुरु मधुरशीताभिष्यन्दिविदा हिविरुद्धाजीर्णप्रमिताशनासात्म्य भोजनाद्गव्यमात्स्यवाराहमाहिष। जाविकपिशितभक्षणात्कृशशुष्कपूतिमांस पैष्टिक पर मान्नक्षोर मोदकदधितिलगुडविकृतिसेवनाच्च, माषयूषेक्षुरसपिण्याकपिण्डालुकशुष्कशाकशुक्तलशुनकिलाट क्रपिण्डकवि समृणालशालककौञ्चादनकशेरुकशृङ्गाटकतरूटविरूढनवधान्याममूलकोपयोगाद्गुरुफलशाकरागहरितक कासमर्दकवसाशिरस्पदपयूपितपूर्तिशीतसङ्कीर्णान्नाभ्यवहरणानमन्दकातिक्रान्तमद्यपानाद् व्यापन्नगुरुसलिलपानादतिस्नेहपानाद संशोधनास्तिकर्मविभ्रमाद् व्यवायाद्दिवास्वप्नात्सुखशयनासनोपसेवनाच्चोपहताग्नेर्मलोपचयो भवत्यतिमात्रं तथोत्कटुकविषमकठिनासनसेवनादुदुभ्रान्तयानोष्ट्र्यानादतिव्यवायाद्वस्तिनेत्रासम्यक् प्रणिधानाद् गुदक्षणनादभीक्ष्णं शीताम्बु संस्पर्शाच्चेललोष्ट्रतृष्णादिघर्षणाद् प्रततनिर्वाहणाद् वातमूत्रपुरीषवेगोदीरणात् समुदीर्णवेगविनिग्रहात् स्त्रीणां चामगर्भभ्रंशाद् गर्भोत्पीडनाद्बहुविपमप्रसूतिभिश्च प्रकुपितोवायुरपानस्तं मलमुपचितमधोगतमासाद्यगुदबलिष्वाधत्ते, ततस्तास्वर्शासि प्रादुर्भवन्ति । उपर्युक्त विविध कारणों से अपान वायु प्रकुपित हो जाता है जो अधोगत सञ्चित मल को प्राप्त करके उसे गुदवलित्रय में धारण कर देता है और अशों की उत्पत्ति कर देता है | अतः अर्शोत्पत्ति में मुख्य कार्य अपान वायु ही करता है और जब तक यह अपनी स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाता अर्शरोग से मुक्ति नहीं मिल सकती । हारीत ने भी इसी मत की पुष्टि की है अनशनलघु रूक्षाहारसंसेवनेन कटुलवणविदाहेः सेवया वातरोधात् । भवति सततवीप्सा विष्टरेणैव हीना कुपितमरुतवेगादर्शसां भूतिरासीत् ॥ अनशनोपविष्टस्य मलमूत्रावधारणे । शीतसंसेवनेनापि गुदजः सम्प्रकुप्यति ॥ लवणकटुकषायातिक्तसंसेवनेन अमितविलघुभोज्याच्छीतलेनातिरोधात् कुपितमलिननामापानमार्गेष्वपाने सृजति रुधिरवातोऽपानमार्गे मरुत्सु ॥ (हा. स्था. तृ. स्था. अ. ११ ). अब हम जातस्योत्तरकालज विविध अर्शों का संक्षिप्त वर्णन प्रकाशित करते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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