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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिक εξε मिला करता । इस रोग के कारण न केवल सम्पूर्ण स्थूलान्त्र अपि तु शेषान्त्र (ileum) का २ फीट भाग भी रोगाक्रान्त हो सकता है । प्रारम्भिक अवस्था में छोटे छोटे पीले रंग के सिध्म बनते हैं जिनके ऊपर एक तन्विमत् पूयिक स्राव ( fibrinopurulent exudation) का आवरण चढ़ जाता है । इस सब के कारण सम्पूर्ण श्लेष्मलकला व्रणशोथ से युक्त हो जाती है और एक तीव्रस्वरूप का रक्तस्रावीय शोफ ( haemorrhagic oedema ) उत्पन्न हो जाता है जिसके कारण श्लेष्मलकला खूब मोटी हो जाती है । ज्यों ज्यों यह प्रक्रिया चलती रहती है नष्ट हुई ऊति का भाग निर्मोचित होकर मल में प्रगट होने लगता है। और जहाँ से निर्मोक गिरता है वहाँ श्लेष्मलकला में एक सर्पाकृतिक ( serpiginous) व्रण बन जाता है जो आन्त्र के धरातल से थोड़ा नीचा होता है जिसके किनारे चिथड़े चिथड़े ( ragged ) होते हैं और जिसका तल व्रणशोथवान् होता है । यह व्रणन अमीबिक ग्रहणी की अपेक्षा बहुत उथला होता है तथा व्रण के किनारे स्पष्टतः कटे हुए होते हैं झुके हुए नहीं । व्रण के धरातल पर व्रणशोथीय उत्स्यन्द के कारण एक पिच्छिल, तन्वि तथा बहुन्यष्टियों द्वारा निर्मित एक आवरण चढ़ जाता है । यह आवरण अपने नीचे के ऊतिनाश द्वारा प्राप्त पदार्थ के द्वारा एक ऐसी कूटकला ( false membrane ) का निर्माण कर लेता है जैसी कि डिफ्थीरिया (रोहिणी) में देखी जाती है । आन्त्रप्राचीर के पेशीय भाग तक ये व्रण बहुत कम पहुँचते हैं। कर बढ़ने की प्रवृत्ति इनकी नहीं होती । पर कभी कभी लस्यावरण तक पहुँचे हुए और अन्त्र का छिद्रण करते हुए भी पाये गये हैं। छोटे छोटे कई ब्रण भी हो सकते हैं और वे सब मिल कर एक बड़ा व्रण भी बना सकते हैं । दो व्रणों के मध्य की श्लेष्मकला सशोथ तथा अंकुरीयित (pabillomatous ) होती है । येशीय भाग को चीर ये अण्वीक्षण करने पर आन्त्रप्राचीर बहुन्यष्टि कोशाओं से परिपूर्ण पाई जाती है । उपश्लेष्मल भाग में भी पर्याप्त शोफ और स्थूलन मिलता है । व्रण के तल में दण्डाणु बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। जब इन व्रणों का उपशम कणन ऊति द्वारा हुआ करता है जिसमें ग्रन्थि विरहित एक साधारण अधिच्छद उसे ढँके रहता है । जब तक व्रणन उपरिष्ठ भाग में रहता है व्रणवस्तु का निर्माण बहुत कम होता है । पर गहरे aणों में व्रणवस्तु अधिक बन जाती है और जो आन्त्र की गति के स्थैर्य ( stenosis ) का कारण बनती है 1 आन्त्र के ये विक्षत इङ्गित करते हैं कि इनकी उत्पत्ति दण्डाण्वीय बहिर्विष की कृपा का परिणाम है । यह बहिर्विष स्थूल आन्त्र की श्लेष्मल कला द्वारा निकलता रहता है । इसमें ऊतिनाश की पर्याप्त प्रवृत्ति रहती है । नैदानिक दृष्टि से रोग एक तीव्र विषरक्तता ( acute toxaemia ) कहलाता है । शीगा के बहिर्विष का परीक्षण करने से पता लगता है कि वह एक ऐसा विष है जो स्थूलान्त्रीय श्लेष्मलकला को बहुत चाहता है । उसके साथ ही एक वातनाडी विष भी निकलता है जिसके कारण परिसरीय वातनाड़ी पाक ( peripheral neuritis ) हो जाता है । इस रोग में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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