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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६८ विकृतिविज्ञान cot-leyden crystals) का पाया जाना भी अमीबिक डिसेंट्री का ही प्रमाण होता है बैसीलरी का नहीं । ब्वायड ने संक्षेप में इन दोनों की विभेदक एक तालिका दी है जिसे हम नीचे दे रहे हैं: -- www.kobatirth.org १. विक्षतीय प्रकार २. व्रण गाम्भीर्य ३. व्रण तट ४. मध्यवर्ती श्लेष्मलकला ५. विक्षतीय जीवाणु ६. मलीय कोशा विज्ञान ७. दण्डाविक ग्रहणी पूयात्मक स्वल्प तीक्ष्ण शोथ पूर्ण ग्रहणी दण्डाणु बहुष्टिको बहुत कम Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामरूपीय ग्रहणी ऊतिनाशात्मक अत्यधिक कुण्ठित अवनत For Private and Personal Use Only प्रकृत आमकारी अन्तःकामरूपी एकन्यष्टि कोशा प्रायशः द्विद्रधि दण्डाविक ग्रहणी या बैसीलरी डिसेंट्री ( Bacillary Dysentry ) 4 अमीबिक तथा दण्डाण्विक ग्रहणियाँ दोनों पूर्णतः पृथक् रोग हैं तथा इनको एक स्थान पर रखना और एक साथ इनका विचार करना असङ्गत और परम्परागत है ऐसा कई विद्वान् मानते और समझते हैं । इस रोग की उत्पत्ति किसी भी देश में हो सकती है । जैसे अमीबिक ग्रहणी की उत्पत्ति उष्ण कटिबन्ध में सीमित है वैसा इसके लिए नहीं । घने बसे हुए भागों में इसकी महामारियाँ फैला करती हैं जो १-२ मा रह कर चली जाती हैं । आन्त्रिक और उपान्त्रिक ज्वर जैसे वाहकों द्वारा प्रचारित होता है। ठीक वैसे ही दण्डाविक ग्रहणी भी वाहकों द्वारा ही प्रचार पाता है । यह रोग जीर्ण रूप भी धारण कर लिया करता है । इस रोग में ज्वर, अनियन्त्रित अतीसार और मल में रक्त और पूय ये मुख्य लक्षण मिला करते हैं । दण्डाविक ग्रहणी के प्रमुख प्रचारक तीन प्रकार के दण्डाणु होते हैं - १. बी डिसेंटरी शीगी (B. dysenteriae shigae ) २. बी डिसेंटरी फ्लेक्जनेरी (B. dysenteriae flexneri ) तथा ३. बी डिसेंटरी सौमी ( B. dyserteriae Sonni) इन तीनों में शीगा दण्डाणु द्वारा अतिघोर रूप की ग्रहणी पाई जाती है । फ्लेक्जनर मध्यम और सोन अल्पतम कष्टदायक रूप लेकर आती है । इस रोग में रोगकारक दण्डाणु स्थानाश्रित रहा करते हैं। न तो ऊतियों में ही प्रविष्ट होते हैं और न रक्तधारा को ही आक्रान्त करते हैं वे स्थानिक ऊतिनाश ( local neorosis ) करते हैं तथा एक प्रकार के बहिर्विष ( exotoxin ) को तैयार करते हैं जो सार्वदेहिक प्रभाव डालता है । इस रोग का प्रथम विक्षत स्थूलान्त्र की श्लेष्मलकला पर बनता है । यतः इसका आक्रमण रक्त की धारा पर नहीं होता अतः आन्त्रिक ज्वर की तरह यहाँ श्वेतकणापकर्ष न होकर श्वेत कणोत्कर्ष मिलता है । इस रोग के कर्त्ता दण्डाणु को आन्त्र निबन्धिनी की ग्रन्थियों में देखा जा सकता है पर अन्य ग्रन्थियों में नियमतः यह नहीं
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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